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परमात्मा अपने पद से नीचे उतरे अथवा अवतरित हो तो वह पामरात्मा बन जाता है । इसलिये जैन दर्शन अवतारवाद की प्रक्रिया को स्वीकार नहीं करता है, क्यों कि नीचे अवतरित होने के लिये पुनः अशुभ पाप कर्म की सत्ता स्वीकार करनी पड़ती है, पुनः वह ईश्वर राग-द्वेष ग्रस्त होकर पाप करके अशुभ कर्म बाँधे तभी वह नीचे अवतरीत हो सकता है, और तभी अवतारवाद सिद्ध हो सकता है। यह सिद्धान्त जैन दर्शन को स्वीकार्य नहीं है । एक बार कर्मक्षय करके जो उच्च पद पर चढ़ चुके हैं वे पुनः किसी कर्मसत्ताधिन नहीं रहते और न वे स्वयं नवीन कर्मोपार्जन नहीं करते हैं, अतः उनके लिये अब नीचे अवतरित होने का प्रश्न ही नहीं रहता । अतः जैन सिद्धान्त “संभवामि युगे युगे” का अवतारंवाद नहीं मानता। जैन सिद्धान्तानुसार तो आत्मा ही शुद्धिकरण करती करती परमात्म पद पर पहूँचती है । नीचे से, ऊपर उठा जाता है, अशुद्ध में से शुद्ध बना जाता है. अपूर्ण में से पूर्ण बन सकते हैं । अल्पज्ञ में से सर्वज्ञ होना संभव है, रागी में से वीतरागी बनना शक्य है - यही जगत का शाश्वत सिद्धान्त है, यही सच्चा क्रम है। इससे उल्टा - विपरीत क्रम ऊपर से नीचे उतरने का ईश्वर के संबंध में तो हो ही नहीं सकता - है ही नहीं अवतारवाद विपरीत क्रम की प्रक्रिया है अतः यह जैन सिद्धान्त को मान्य नहीं है।
शुद्धिकरण की प्रक्रिया से आज की पामरात्मा एक दिन परमात्मा बनती है। बस, इस प्रक्रिया का नाम ही धर्म है । अतः धर्म आराध्य है, उपास्य है, आचरणीय है, आदेय-उपोदय है । धर्म साबुन का कार्य करता है । आत्मा पर लगे हुए मलीन कर्मो को धोकर यह आत्मा को शुद्ध बनाता है । इस प्रकार शुद्धिकरण की प्रक्रियामें प्रगति करता हुआ जीव ही एक दिन संपूर्णतया शुद्ध बनकर परमात्मपद की प्राप्ति करता है । परमेश्वर-परमात्मा के रूप में जाना जाता है ।
'अरि' का हंत करने वाले - अरिहंत
जैन धर्म - जैन दर्शन ईश्वर के लिये अन्य अनेक पर्यायवाची शब्दों का उपयोग करता है, जैसे अरिहंत, वीतराग, जिन, जिनेश्वर, जिनेन्द्र, तीर्थंकर, प्रभु, परमात्मा, परमेश्वर, परमेष्टि, भगवान, नाथ, आदि नाम ईश्वर के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । ईश्वर शब्द जैन धर्म में अधिक प्रचलित नहीं है । 'ईश' शब्द रूप में मतुप प्रत्यय लगने से ईश्वर शब्द की रचना हुई है, 'ईश' शब्द रूप मालिक-स्वामी के अर्थ में है । ईश्वर अर्थात् जगत का मालिक-स्वामी के अर्थ में है । ईश्वर अर्थात्
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