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करने में भी ईश्वर को कारण स्वरूप मानना और कालांतर में फलदाता भी ईश्वर को ही मानना - इसके पीछे एक मात्र ईश्वरेच्छा के सिवाय अन्य कुछ भी कारण नहीं मानना - यह सब मिथ्या ज्ञानग्रस्त है । राहू से ग्रसित सूर्य की जैसी स्थिति होती है वैसी ही स्थिति मिथ्या-ज्ञानग्रस्त मूढ अज्ञानी जीवों की होती है, अतः उपास्य तत्त्व ईश्वर को शुद्ध विशुद्ध और अत्यन्त शुद्ध स्वरूप में ही मानना चाहिये।
आत्मा ही परमात्मा बनती है :
आत्मा के दो प्रकार है :
आत्मा
पामरात्मा (जीव)
परमात्मा(ईश्वर) पामर + आत्मा = पामरात्मा और परम + आत्मा = परमात्मा
इन दोनों ही शब्दो के अन्त में तो आत्मा ही है । अन्तर इतना ही है कि एक पामर है और दूसरा परम है । पामर अर्थात् कैसा ? जैसा कि बादलों से घिरा हुआ सूर्य होता है, और परम अर्थात् बादलो से बीना घिरा हुआ शुद्ध सूर्य । इसी प्रकार पामर अर्थात् शुभाशुभ कर्मो से आवृत्त जीवात्मा और परम अर्थात, जिसके शुभाशुभ कर्मों के आवरण सर्वथा हट चुके हैं ऐसी शुद्ध-विशुद्ध-अत्यन्त शुद्ध आत्मा = परमात्मा । बस, इतना ही अंतर है, परन्तु अन्ततः तो दोनों आत्माएँ ही हैं । जैन दर्शन पामरात्मा को संसारी जीवात्मा कहता है और परमात्मा को ईश्वर परमेश्वर के स्वरूप में पहचानता है । - इससे एक बात सिद्ध होती है कि परमात्मा भी आत्मा की ही कक्षा हैं । जीव-शिव की बातें तो हिन्दु भी करते ही है । फिर भी ईश्वर को सर्वोपरि सत्ता स्वीकार कर उसे कर्ता-हर्ता मानते हैं और जीव को कर्ता-हर्ता का कोई अधिकार ही नहीं देते । फिर ऐसी मान्यता में जीव-शिव की समानता कहाँ रही ? मात्र भाषा में या शब्दों में ?
जैन दर्शन में आत्मा-परमात्मा को समान जातीय माना है । जैन दर्शनानुसार दोनों ही एक ही कक्षा के है - एक ही ज्ञाती के है - एक मलीन है तो दूसरा शुद्ध है । एक कर्मग्रस्त है तो दूसरा कर्ममुक्त - संपूर्ण रूप से शुद्ध है, एक अपूर्ण है तो दूसरा परिपूर्ण है - सम्पूर्ण है ।।
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