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रहती है, इसका अर्थ तो ऐसा लगता है कि ऊपरवाला नहीं देता होगा तभी तो माँगना पड़ता है न ? और जब देते ही नहीं है, तो माँगने की भी क्या आवश्यकता हैं ? और यदि यह दयालु दे ही देता हो, वह भी अपनी इच्छा से ही देता हो तब तो हमारे माँगने की आवश्यकता ही क्या ? क्यों कि इच्छा किसकी बड़ी ? याचक की या दाता की ? मनुष्य की या ईश्वर की ? ईश्वर महान् है अतः उसकी इच्छा बड़ी है ? या इच्छा बड़ी ह अतः ईश्वर महान् ? इस समस्या को हल करने के लिये दिमागी कसरत करनी होगी, फिर भी उत्तर ढूँढने में कष्ट पडेगा । ईश्वर इच्छा से बड़ा है तो फिर वह अपने भक्तों के पास मँगवाने की प्रतीक्षा क्यों करता हैं ? उसे तो बिना माँगे ही दे देना चाहिये । ईश्वर ने दे दिया होता, तो लोग माँगते ही क्यों ? लाखों करोड़ो सभी माँगते हैं, यही इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर देता है । यदि सब ईश्वर ने दिया नहीं और देता भी नहीं है । अतः देता है यह मान्यता ही अज्ञानतापूर्ण है - गलत है और उसके देने जैसा कुछ रहता भी नहीं । यह बात दीपक जैसी स्पष्ट है तो फिर हम माँगने जैसी भूल क्यों करते हैं ? क्या यह हमारी अज्ञानता नहीं. हैं ? भूल नहीं हैं ? हम लोभग्रस्त जीव माँगते माँगते भिखारी बन चुके हैं अथवा माँगने में अभ्यस्त हो गए हैं । इतना तत्त्व समझते ही राजा ने उस भिखारी को अभयदान देकर मुक्त कर दिया और स्वंय ईश्वर के सच्चे स्वरूप को समझने के लिये साधना के क्षेत्र में निकल पडा । कोई सच्चा गुरू प्राप्त हो - कोई सच्चा धर्म या दर्शन मिले जो इस रहस्य को समझा सके, ऐसे गुरू की शोध में वह निकल पड़ा । वह जानना चाहता था कि ऐसा सच्चा धर्म या दर्शन है या नहीं ?
पूर्व कृत कर्मों के अनुसार प्राप्ति होती है :
जैन दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि जीव स्वयं ही अपने जन्म-जन्मान्तरों में जैसे जैसे अच्छे-बुरे पुण्य-पाप कर्म करता है उसि के आधार पर आगामी काल-जन्मादि में उसे सब कुछ प्राप्त होता है । उसे पुण्य का फल सुख के रुप में और पाप का फल दुःख के रुप में प्राप्त होता है । बस, इसे ही कर्म की प्रक्रिया कहते हैं । कर्म दोनो प्रकार के होते हैं । पुण्य शुभ कर्म है और पाप अशुभ- बुरा कर्म है I As you sow, so shall you reap जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे। जिसे जितना और जैसा दिया होगा उसे तदनुसार वैसा ही और उतना ही प्राप्त होगा । बोओ वैसा ही काटो और दो वैसा ही लो। ये सब कर्म सत्ता की बातें हैं,
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