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क्या किया जाए ? ईश्वर न तो अपनी इच्छा के अनुसार देता है, न हमारी इच्छा के अनुसार देता है । करें भी तो क्या करें? माँगते माँगते संपूर्ण जीवन चला गया, परन्तु उपरवाले को दया न आई सो न आई । उसने हमारी बात न सुनी सो न सुनी क्या किया जाए ? कहाँ गई ईश्वर की देने की बात ? ऊपर से लोकभाषा में बोलते हुए लोग अंधश्रद्धापूर्वक कहते हैं कि ऊपरवाला जब देता है, तब छप्पर फाड़कर देता है । इस वाक्य में जब और तब कालवाची शब्द है । जब और तब न आता है और न ऊपरवाला देता है । इस प्रकार माँगने से ही मिल जाता है । तब तो क्या चाहिये ?
माँगने वाला भिखारी कहलाता है :
श्री गणेशमंदिर के बाहर अनेक भिखारी पंक्ति बद्ध बैठे थे और राजा दशनार्थ मंदिर में गया । भिखारीयों में से एक ने ऐसा संकल्प कर रखा था कि जो व्यक्ति किसी से भी कुछ नहीं माँगेगा उसी के पास मैं माँगूंगा, क्यों कि मांगने वाला भिखारी कहलाता है । इस संसार में लोभी व्यक्तियों को माँगने की आदत ही पड़ी हुई होती है । अतः मैं अब ऐसे व्यक्ति के पास माँगूंगा जो अन्य किसी के पास न माँगता हो । यह निर्णय कर तो लिया, परन्तु उसे तीन दिन भूखा रहना पड़ा, क्यों कि उसके नियम का पालन नहीं हो रहा था । इतने में एक समृद्धि सम्पन्न राजा आया । उसे.आते देख कर भिखारी के नैत्रों में आशा की किरण चमकी और उसे लगा कि आज कुछ प्राप्त होगा क्यों कि यह राजा बड़ा ही समृद्ध है । यह तो किसी के पास कुछ भी माँगता नहीं होगा ? ऐसा सोचकर राजा कुछ देगा - ऐसी आशा से भिखारी मंदिर के द्वार पर खड़ा रहा ।
राजा श्री गणेशजी के दर्शन करते करते इस संसार की अतुल ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति की याचना करते हुए कहने लगा, हे प्रभु ! यह सब मुझे देना । मुज पर कृपा दृष्टि रखना.. आदि कहता कहता राजा स्तुति - दर्शन करके बाहर आया
और पंक्तिबद्ध खड़े हुए सभी भिखारीयों को खुले पैसे देता हुआ आगे बढ़ा ! उस नियम धारी भिखारी ने लेने से इनकार करते हुए कहा हे राजन् ! मैं किसी के पास न कुछ भी माँगता हूं न कुछ भी लेता हूँ, क्यों कि भिखारी भिखारी ही होता हैं । मैं भी भिखारी और मेरी ही जाति का वह भी भिखारी ही कहलाता है । अतः उससे क्या लूँ? मैंने ऐसा नियम ले रखा है कि जो स्वयं अन्य के पास माँगनेवाला है उसके पास न तो में कुछ भी माँगू न उससे कुछ भी लूँ । इतना सुनते ही राजा
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