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________________ अतः चाहे जिस दृष्टिकोण से जैन धर्म अथवा दर्शन को नास्तिक कहना बड़ी भूल है - भ्रमणायुक्त है अतः सभी प्रकार से कसौटी पर कसने के पश्चात अथवा परीक्षा करने के बाद भी जैन धर्म या दर्शन को आस्तिक ही नहीं बल्कि परम आस्तिक कहना ही अधिक न्याय संगत हैं । ईश्वर बनना है या मात्र दर्शन करने हैं ? ईशोपासना किस हेतु से करनी है ? क्या ईश्वर बनने के दृष्टि कोण से या फिर मात्र ईश्वर का प्रत्यक्षीकरण करने के लिये ? अथवा ईश्वर के दर्शन के खातिर ही ईश्वर की उपासना करनी है ? इतनी सी छोटी बात पर भी भिन्न भिन्न दर्शनों की दार्शनिक मान्यताएं भिन्न भिन्न हैं । ऐसी भिन्न भिन्न मान्यताओं के आधार पर ही दर्शनों के स्वरूप भिन्न हुए हैं । वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति दोनों ही में ईश्वरोपासना तो बताई ही हैं, परन्तु साधना का साध्य क्या हैं ? किस साध्य के आधार पर साधना की जाती है । साध्य विहीन साधना निरर्थक सिद्ध होती है । वैदिक संस्कृति में मात्र एक ही ईश्वर की सत्ता मानी गई है । वे एक ईश्वर के सिवाय अन्य किसी को भी ईश्वर की सत्ता के स्थान पर स्वीकार करते ही नहीं, फिर प्रश्न ही कहाँ रहता है ? अतः ईशोपासना करने वाला एक मात्र ईश्वर के प्रत्यक्षीकरण अथवा दर्शन मात्र का ही लक्ष्य रख सकता हैं । बस, इससे आगे वह बढ़ नहीं सकता, क्यों कि आगे बढ़ने की बात स्वीकार करने जाए, तो ईश्वर की सत्ता जाती रहती है अतः क्या करें ? जैन दर्शन सभी दर्शनों से भिन्न है । उसका कहना है कि ईश्वर की कोई एक हाथ की सत्ता नहीं है । ईश्वर मात्र व्यक्ति नहीं - ईश्वर का पद भी हैं । जिस प्रकार नदी में पानी और पट दोनों भिन्न भिन्न उपर हैं । प्रवाह के रूप में बहता हुआ पानी नदी कहे या दो पट स्वरूप भूमि को स्पर्श कर बहते हुए पानी को नदी कहें ? प्रवाह बद्ध बहने वाला पानी है । पानी तो रहेगा भी और सूख भी जाएगा परन्तु नदी का पट का यथावत् रहेगा । इसी प्रकार ईश्वर का एक पद है - अवस्था है। जो आत्मा उस पद पर पहुँचती है वह ईश्वर बन जाती हैं । इस पद पर जो जो पहुँच सकते हैं वे सभी ईश्वर बन जाते हैं । यह सत्ता अथवा अवस्था को आत्मा शुद्धिकरण की एक विशिष्ट प्रक्रिया से प्राप्त होती हैं - ऐसा जैन दर्शन स्वीकार करता है । अतः जैन दर्शन ईश्वर बनने की विशिष्टता पर बल देता है, मात्र ईश्वर के दर्शन करके अथवा प्रत्यक्षीकरण करके जैन दर्शन संतुष्ट होने की बात नहीं 327
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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