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________________ धारा ही स्वतंत्र है, अतः जैन वेदों को मानें ही कैसे ? यह तो यहाँ प्रसंगवश निर्देश मात्र किया है, बाकी तो वेद स्वतंत्र समीक्षा करने योग्य हैं । यह स्वतंत्र रूप से बड़ा विषय है, परन्तु यहाँ संक्षिप्त समीक्षा करने से इतना तो स्पष्ट रूप से ख्याल आ जाएगा कि ऐसे विरोधाभासी विधान करने वाले वेद सर्वज्ञकथित हो ही नहीं सकते है और सर्वज्ञवचनमें कभी भी परस्पर विरोधाभास संभव ही नहीं है । अतः जैन दर्शन अपने यहाँ तीर्थंकर, परमेश्वर, अरिहंतो को सर्वज्ञ स्वरूप में मानता है - स्वीकार करता हैं, उनकी वे आज्ञा और उपदेश स्वरूप आगमों को ही स्वीकार करता है, उन्ही के सिद्धान्त की सच्ची श्रद्धा को सम्यग् दर्शनके रूप में स्वीकार करता है । अतः वेदो को न मानने से जैन नास्तिक नहीं कहलाते हैं । यह तो ऐसी ही बात हुई कि हमारे घर की ठकुराई को यदि तुम अस्वीकार करते हो तो तुम भिखारी हो । अरे वाह ! यह भी कोई न्याय है क्या ? मेरे बँगले में वैभव अपार है, ठकुराई असीम है अतः तुम्हें इसे माननी ही चाहीये, वरना तुम बँगलाधारी सेठ होने पर भी भिखारी हो - यह कैसा न्याय ? इसी प्रकार हम ईश्वर को जिस अर्थ में जिस प्रकार जिस स्वरूप में जगत का कर्ता आदि मानते हैं, बस, वैसा ही तुम भी मानो तभी तुम सच्चे आस्तिक हो, वरना तुम नास्तिक हो ऐसी कपोल - कल्पित कल्पनाओं से तो कैसे चल सकता हैं । इस प्रकार जबरदस्ती करने से तो कैसे चलेगा ? 1 सच्ची रीति से सच्चे ज्ञानयोग से पूरी तरह परीक्षा करने से स्पष्ट हो जाता है कि जैन ईश्वर को जगत् का कर्ता-हर्ता स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं, क्योंकि वास्तव में तो ईश्वर का वैसा स्वरूप भी नहीं है । अतः जैनों के सिर यह बलपूर्वक थोपना उचित नहीं है । जैनों को अपनी व्यक्तिगत दृष्टि से नास्तिक कहना भूल भरी मान्यता हैं । पीलीये से पीड़ित रोगी को श्वेत दूध अथवा वस्त्र भी पीतवर्ण का दिखाई दे तो यह दोष दूध या वस्त्र का नहीं होता । यह तो उस रोग का ही दोष हैं । काला चश्मा पहनने वाला सभी वस्तुओं को काली ही कहे तो कैसे चलेगा ? जब कि वास्तव में सभी वस्तुएँ श्याम वर्ण की नहीं हैं, तो फिर ऐसा क्यों कहें ? इसी प्रकार अपने ही ढंग से वेद और ईश्वर का स्वरूप मान लेनेवाले वैदिक पीलिये के रोग से ग्रस्त होकर जैनों को नास्तिक के रूप में देखते हो, तो इसमें जैनों का क्या दोष ? यह तो पीलिये वाली मति का अथवा काले चश्मेवाली दृष्टि का भ्रम है - दोष है, वास्तव में जैन नास्तिक नहीं हैं । किसी भी प्रकार से - किसी बी व्याख्या से भी जैनों को नास्तिक सिद्ध नहीं कर सकते हैं ! 326
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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