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मात्र जैन ही नास्तिक ? वाह ! यह किसके घर का न्याय है ?
पी. एल. वैद्य की मनगढंत कल्पनाएँ :
पुस्तक में पी. एल. वैद्य लिखते हैं कि जैन दर्शन-धर्म में २४ तीर्थंकर हुए ही नहीं है । पार्श्व नामक एक सन्यासी बाबा था और कालांतर में वही बाबा अपना पक्ष जमाता गया और लोगों को कहने लगा कि मैं तीर्थंकर हूँ और मुज से पूर्व ऐसे २२ तीर्थंकर हो गए हैं तथा मैं तेइसवा हुँ । इस प्रकार इस बावे ने यह जैन धर्म चलाया हैं । बस, तभी से यह जैन धर्म अस्तित्व में आया और चलने लगा हैं । इसके बाद २४ वे महावीर स्वामी हुए। पी. एल. वैद्य इस प्रकार स्पष्ट लिखते हैं कि जैन धर्म में २४ तीर्थंकर हुए ही नहीं । जैन धर्म अधिक प्राचीन भी नहीं हैं, क्योंकि यह पार्श्व नामक संन्यासी-बावे से निकला है । अतः यह ३ हजार वर्ष के आसपास का ही हैं । ऐसी कल्पना करके इस कथित वैद्य ने लिखकर लोगों को भ्रमित करने का कुप्रयास किया हैं ।
दूसरी और वे लिखते हैं कि जैन धर्म में ४५ आगम जैसा कुछ भी हैं ही नहीं । प्राचीनता की दृष्टि से मात्र आचारांग और सूत्रकृतांग दो ही स्वीकार्य है । शेष नहीं । इससे भी आगे बढ़कर लिखते हैं कि जैन धर्म में केवल ज्ञान जैसी कोई वस्तु ही नहीं है । केवल ज्ञान हो और वे सर्वज्ञ कहलाएँ ऐसे कोई सर्वज्ञ होते ही नहीं और जैन धर्म में भी नहीं है ।
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इतना सब लिखने के पीछे कारण संभव है कि वे स्वंय ब्राह्मण हैं और अभी तक जैनो के प्रचि पुराने द्वेष के बीज उनमें रह गए होंगे । अतः इस प्रकार मनमाने ढंग से लिखते हैं, अथवा तो उन्होंने जैन धर्म-दर्शन के विषय में कुछ भी अध्ययन ही न किया हो और चाहे जैसे लिख दिया हो, या जैन धर्म-दर्शन के विषय में कुछ भी पढ़ा न हो देखा न हो तो यह व्यक्ति इस प्रकार लिख ही कैसे सकता है ? क्या वैद्यं ने जैन धर्म के ४५ आगम देखे है ? पढ़े हैं ? दार्शनिक ग्रंथ आगम बाह्य भी अनेक है । क्या उन्होने ये पढ़े हैं ? यदि न पढ़े हों - न देखे हो तो उन्हे जैन धर्म के विषय में चाहे जैसे आंखे मूंदकर मुँह में मन में जैसा भी आया वैसा लिखने का अधिकार ही क्या है ? अन्य के विषय में टीका टिप्पणात्मक लेख आँख मूँदकर लिख डालने का इन्हें अधिकार किसने दिया ? हाँ, कभी पूर्व पक्ष-उत्तर पक्ष की समीक्षा कर सकते हैं, प्रश्न खडे, कर सकते हैं, परन्तु निर्णयात्मक कैसे लिख डाला ? यदि वैद्य महाशय ने जैन धर्म के ४५ आगम
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