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________________ आचरण में भी इनका निषेध किया गया हैं । इतर सभी धर्मों में से किसी एक भी धर्म अथवा दर्शन में ऐसी कोई मान्यता ही नहीं हैं । भौगोलिक दृष्टि से अनंत अलोक में सर्वत्र व्याप्त अनंत आकाश हैं । उसके बीच लोक क्षेत्र है जो १४ राजलोक तक परिमित है । इसी में जीव- अजीव सृष्टि रहती हैं । जीव अनंत है और धर्मास्तिकाय नामक गति सहायक और अधर्मास्तिकाय नामक स्थिति सहायक दोनो ही अदृश्य अरूपी पदार्थ सर्वत्र लोक में अपना अस्तित्व रखते हैं । जिनके बिना हमारी गति-स्थिति न हो सके-ऐसे आवश्यक पदार्थो को अजीव के भेद में कौन सा दर्शन मानता है ? किस धर्म में ये भेद बताए गए हैं ? पुद्गल परमाणु का स्वरूप भी सर्वज्ञ के शासन में अद्भुत वर्णित है । जीव (आत्मा) अजीव, पुण्य, पाप, आश्वव-संवर, निर्जर्रा-बंध - मोक्ष- इन नौ तत्त्वों का सम्पूर्ण शुद्ध स्वरुप और इनकी व्यख्या आदि किस धर्म अथवा दर्शन. में उपलब्ध है । ईश्वर की एक महान् सत्ता बिठा रखी है, वहीं कर्ता है अतः कर्मसत्ता को भी स्वीकार नहीं करते फिर पुण्य पाप या आश्रव - संवर, बंधनिर्जरा आदि की बातें ही कहाँ से संभव हों, क्यों कि ये सभी तत्त्व कर्मसत्ता के अन्तर्गत के तत्त्व हैं । ढाईद्वीप या असंख्य द्वीप- समुद्र हैं । उनमें भी १५ कर्मभूमि, ३० अकर्मभूमि, ५६ अंतद्वीर्प- इस प्रकार १०१ प्रकार के स्थान हैं जहाँ मनुष्य जन्म लेते हैं - वे इन्हें भी नहीं मानते उनमें ४५ लाख योजन के विस्तारवाला ढाई द्वीप है । इन सभी बातों का वर्णन कहाँ है यदि स्वर्ग-नरक की बात का विचार करते हैं तो जैनेतर दर्शन अवश्य मानते हैं, परन्तु संपूर्ण स्वरूप अधिक सूक्ष्मता पूर्ण नहीं मानते । - ऐसे अनेक सैंकड़ो पदार्थ-तत्त्व हैं जो सत् स्वरूप में विद्यमान हैं - असत् नहीं हैं और जैन दर्शन जिनका सुंदर वर्णन करता है उन्हें जैनेतर दर्शनों में स्वीकार नहीं किया गया है । यदि दोनों ही पक्ष से परमेश्वर सर्वज्ञ समान ही होते तो फिर सर्वज्ञ का ज्ञान भी समान ही होना चाहिये और इस आधार पर सभी पदार्थों का ज्ञान भी समान ही होना चाहिये । इसके बजाय इतना भेद - अंतर क्यों पडता है ? जैन जिसे मानते हैं स्वीकार करते हैं, उनका जैनेतर दर्शनों में नामोल्लेख मात्र भी नहीं मिलता तब क्या समजा जाए ? ऐसे अनेक विषय हैं। जिनका अन्य दर्शनों में उल्लेख मात्र भी नहीं है, फिरभी वे सभी आस्तिक और 320 -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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