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________________ निरीश्वरवाद : जैन धर्म को निरीश्वर धर्म कहकर-जैनों को निरीश्वरवादी कह दिया गया है - ऐसा क्यों ? जैनेतर दर्शनानुसारी मान्यतावाले ईश्वर को मानें तो ही क्या जैन सेश्वरवादी कहलाए ? ईश्वर को मानते हैं क्या ऐसा कहा जाए ? आपकी मान्यतानुसार न मानकर स्वयं अपने धर्म की स्वतंत्र मान्यतानुसार मानते हैं, फिर जैनों को निरीश्वरवादी कहने का अर्थ क्या हैं ? ऐसा क्यों कहा जाता हैं । निरीश्वरवाद का अर्थ तो है ईश्वर को ही न मानना । ईश्वर रहित मान्यता निरीश्वरवाद है । जैन ईश्वररहित ही सब नहीं मानते । वे ईश्वर को मानते हैं - स्वीकार करते हैं, पूजा करते हैं- मात्र अन्तर यही है कि आप लोगों की मान्यतानुसार नहीं, परन्तु अपने स्वतंत्र ढंग से वे मानते - पूजते हैं । वे अपने स्वतंत्र सर्वज्ञ वीन राग अरिहंत परमात्मा को ईश्वर तो क्या बल्कि परमेश्वर के रूप में मानते हैं, फिर वे निरीश्वरवादी कैसे हुए ? ईश्वर शब्द की धातु गत व्युत्पत्ति अथवा किसी भी प्रकार की व्युत्पत्ति में जगत् कर्ता अथवा रचयिता अर्थ की ध्वनि नहीं निकलती । ईश अर्थात् स्वामी - वह सर्व जगत का स्वामी ईश्वर कहलाता है । तो यह व्युत्पत्ति जैनों को भी मान्य हैं, 'तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय' कह कर जैनो ने ईश्वर की स्तुति की है और कहा है कि तीनों ही जगत के स्वामी रूप परमेश्वर को नमस्कार हो । जैनेतर ईश्वर को संसार के निर्माता मानकर उसके अधिकारी के रूप में ईश्वर को स्वामी गिनते हैं, जब कि जैन दर्शन मे तीनों ही जगत के सर्व जीव अरिहंत वीतरागी परमात्मा को मानकर-पूजकर अपने नाथ-स्वामी के अर्थ में स्वीकार करते हैं - मानते हैं, पूजते हैं अतः त्रिलोकनाथ, ईश्वर, परमेश्वर कहलाते हैं । इस प्रकार जैन निरीश्वरवादि सिद्ध होते ही नहीं है, बल्कि शुद्ध ईश्वरवादि और परमेश्वर को माननेवाल सिद्ध होते हैं। जैनों को नास्तिक कहना भयंकर मूर्खता है. : . न तो जैन दर्शन को नास्तिक कह सकते है और न जैन दर्शन के अनुयायियों को नास्तिक कहा जा सकता हैं क्योंकि वे तो ईश्वर को अधिक शुद्ध स्वरूप में मानते हैं । वे उसका विकृत स्वरूप करके उसे रागी-द्वेषी नहीं मानते परन्तु वीतरागी मानते हैं । मात्र ईश्वर को मान लेने अथवा उसकी सत्ता मात्र से अस्तित्व मान लेने से आस्तिकता की छाप नहीं लगती । ईश्वर को मानकर भी 317
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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