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१९) ईश्वर सदा काल नित्य ही हैं ।
२०) ईश्वर का निवास स्थान कोई वैकुंठ मानते हैं, कोई नीचे शेषशायी कहते हैं । कोई अद्दश्य स्वरूप में 1 सर्वत्र विश्व व्याप्त कहते हैं । २१) सर्वत्र मंदिरों में सपत्नी तथा राग-द्वेषादियुक्त आयुधादि सहित प्रतिमाएँ बनती हैं और पूजी जाती हैं ।
१९) अरिहंत स्वरूप ईश्वर नित्य नहीं उनका निर्वाण होता हैं । सिद्ध परमात्मा ज्ञानादि - अनंत स्थिति में नित्य हैं ।
२०) मनुष्य लोक में स्वदेही अवस्था में अरिहंत विचरते हैं, ऐसा मानते हैं ।
२१) पत्नी-पुत्रादियुक्त प्रतिमाए भरवाई ही नहीं जाती । वे वीतरागी हैं अतः पत्नी-पुत्रादिसहित प्रतिमा नहीं होती है । ध्यानस्थ 'पद्मासनस्थ अकेली ही प्रतिमा भरवाई जाती हैं और पूजा की जाती हैं ।
वेद में उपलब्ध वर्णनानुसार सृष्टि की रचना करता हैं ।
२२) वेदाधिन ईश्वर वेदमें देख देख कर २२ ) जैन दर्शन में अरिहंत स्वयं सर्वज्ञ हैं । जैन दर्शन वेद नहीं मानता है । सृष्टि का रचयिता ही नहीं मानता फिर वेद का प्रश्न ही कहाँ रहा ? २३) जैन अलग-अलग २४ तीर्थंकर मानते हैं ।
२३) २४ अवतार मानते हैं ।
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इस प्रकार संक्षिप्त स्वरूप इतने मुख्य बिंदु हैं जो जगत् के अन्य धर्म-दर्शन तथा उनकी मान्यताएँ जैन धर्म को भिन्न स्वतंत्र सिद्ध करते हैं । जैनों की ईश्वर विषयक मान्यता स्वतंत्र है बिल्कुल ही अलग सिद्ध होती है । पानी पर तेल - बिन्दु की भाँति यह अलग ही निखर उठता है । फिर 'सब एक है,' किसी भी रूप में मानों, पूजो, आखिर सब एक है, सिर्फ नाम-भेद हैं ये सभी बातें कितनी खोखली है । जैन धर्म को यह सब बोलचाल की भाषा लागू नहीं होती, न उसे ये मान्य ही है ।
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