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१३) ईश्वर ही सृष्टि का लालन-पालन १३) जैन दर्शन में ईश्वर सृष्टि बनाता करता है । वही नियंता ही सृष्टि ही नहीं, तो उसके पालन-पोषण को सम्हालना उसी का काम हैं। का प्रश्न ही कहाँ उठता हैं । वह
नियंता भी नहीं हैं। १४) ईश्वर ही एक मात्र सत्य हैं, शेष (१४) जैन दर्शन ने परमेश्वर को स्वतंत्र सम्पूर्ण जगत मिथ्या हैं, माया रुप माना हैं । जगत् पुद्गलों की
पौद्गलिक रचना हैं । उसमें अनन्त जीव भी रहते हैं । स्वकर्मानुसार ४ गतियों में जीव हैं, जड़ पदार्थ है - यह भी सत्य हैं, जड़ पदार्थ हैं - यह भी सत्य हैं । जगत माया - मिथ्या रूप
नहीं है। १५) ईश्वर महाप्रलय करके अंतमें १५) जैन सृष्टि बनाने वाले ईश्वर स्व सृष्टि का ही संहार कर लेता हैं । को ही नहीं मानते, फिर महाप्रलय
अथवा संहार मानने का प्रश्न ही
कहाँ रहता है। १६) सर्वज्ञ ईश्वर की भुल से ही कल्पना१६) जैन धर्म मान्य परमेश्वर ही की हैं। .
घनघाती कर्मों का क्षय करके
सर्वज्ञता प्राप्त करते हैं। १७) जगत् के जीवों का सुख-दुःख . १७) जीवों का सुख दुःख उनके ‘कर्ता-दाता ईश्वर ही हैं । ईश्वर स्वयं द्वारा कृत शुभ अशुभ की इच्छानुसार ही सब होता हैं । कर्माधिन हैं । अरिहंत परमात्मा
राग-द्वेष रहित वीतरागी होने के कारण स्वयं की न कोई इच्छा रखते हैं और न तदनुसार कुछ
करते ही हैं। १८) ईश्वर, परमेश्वर, जगतपिता, १८) अरिहंत, वीतराग, जिन-जिनेश्वर सृष्टि रचयिता, भगवान इत्यादि तीर्थंकर, परमेश्वर, परमात्मा, शब्द ईश्वर के अर्थ में प्रयोग करते सिद्ध, बुद्ध, मुक्त तथा भगवान शब्द
ईश्वर के लिये प्रयोग करते हैं ।
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