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________________ भगवान बना जा सकता हैं । ५) ईश्वर अन्य कोई भी नहीं बन ५)जैन दर्शन में कोई भी भव्यात्मा सकता । वह एक की सर्वोपरि कर्म क्षय करके परमात्मा बन सत्ता है । सकती है । किसी एक की ही सत्ता न होने से अन्य किसी को निषेध नहीं है। ६) सर्वोपरि ईश्वर को अशरीरी मानते६)जैन दर्शन अरिहंत को सिद्धान्त हैं । कई उसे सशरीरी मानते हैं। और मुक्तात्मा को मानते अशरीरी हैं। ७) वे ईश्वर को सशरीरी के रूप में ७)जैन दर्शन में सर्वज्ञ प्रभु अनंत __ भी विश्वव्यापी मानते हैं। ज्ञान से लोकालोक व्यापी हैं, न कि स्वदेह से । ८) ईश्वर की इच्छानुसार ही सब ८)जैन धर्म मान्य अरिहंत इच्छारहित . कुछ होता हैं । उसकी इच्छा के होते हैं । उनमें राग-द्वेष नहीं होते, बिना कुछ भी नहीं होता है। अतः उनमें इच्छा का प्रश्न ही नहीं उठता है। ९) जीव ईश्वर के अंश रूप में हैं, ९)जैन दर्शन अनंत जीवात्माओं को उपाधिभेद से हैं । जीवों का स्वतंत्र रूप में मानता हैं, ईश्वर के स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हैं। अंश के रूप में नहीं मानता है । १०) ईश्वर को शुभाशुभ का फलदाता१०) जैन दर्शन ईश्वर को जीवों का मानते हैं । शुभाशुभ का फलदाता न मानकर __ कर्म सत्ता को ही बलवान कहता हैं । ११) “संभवामि युगे युगे” कहकर ईश्वर ११) जैन धर्म में सृष्टिकर्तृत्ववाद ही को युग-युग में जन्म लेने वाला नहीं है, अतः युग युग में पुनः मानते हैं । जन्म नहीं लेते । एक बार मुक्त बनी हुई आत्मा पुनः जन्म धारण नहीं करती है। १२) ईश्वर अपनी इच्छानुसार लीला १२) जैन ईश्वर को वीतराग महापुरूष करता है । यह सब ईश्वर की लीला- मानते हैं । वे इच्छा रहित रागमाया हैं । द्वेष रहित होते हैं; अतः न लीला करते हैं न माया दिखाते हैं । 314
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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