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और सच्चा है ।
जीव स्वतंत्र है । स्वयं अपनी अपनी वृत्ति के आधार पर शुभ-अशुभ पुण्यपाप की प्रवृत्ति मन-वचन-काया, से करता है और उससे अच्छे-बुरे कर्म अर्जित होते हैं । उन उन कर्मों के समय-समय पर उदय होने से जीव सुख-दुःख, स्वगनरक, सद्गति-दुर्गति आदि के अच्छे बुरे विपाक - फल प्राप्त करता है । बस, आवश्यकता है कर्म की शुद्धसत्ता को मानने की । ईश्वर कहीं भी बीच में आता ही नहीं हैं, अतः ईश्वर का स्वरुप विकृत होने का प्रश्न ही नहीं रहता । इस प्रकार ईश्वर और कर्म सत्ता का स्वरुप अलग अलग कर देना चाहिये । दोनों ही की स्वतंत्र सताएँ हैं - इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये और ईश्वर को शुद्ध तत्त्व के रुप में उपास्य समझकर उसकी उपासना करनी चाहिये ।
इस ईश्वर का शुद्ध स्वरुप क्या है ? क्या ईश्वर Readymade तैयार ही अवतरित होता है या इस धरती पर अपने जैसे जीव ही स्वयं स्वपुरुषार्थ से ईश्वर बनते हैं ? ईश्वर बनने की कला क्या है ? क्या कोई भी आत्मा परमात्मा बन सकती है ? या यह मात्र ईश्वर का ही अधिकार है ? कितने जीव ईश्वर बन सकते हैं ?' बनने के बाद वे क्या करते हैं ? कहाँ रहते हैं ? ऐसे ईश्वर की उपासना साधना कैसे की जाए आदि सैंकड़ो प्रश्नों की विचारणा हम आगे स्वतंत्ररुप से करेंगे । 'अलं विस्तरेण' अधिक विस्तार से प्रयोजन सिद्ध हुआ । इतने विवेचन से जिस ईश्वर की उपासना हमें आजीवन - भवोभव करनी है, उस ईश्वर के स्वरुप को सच्चे अर्थ में समझने के लिये एक विनम्र प्रयत्न किया है, सत्य स्वरुप समझने के लिये तर्क और युक्तियों का सहारा लिया है । इसे कोई आक्रोश या टीका - टिप्पणी समझने की भूल न करे । सज्जनों ! सज्जनता का भाव छोड़े बिना सत्य को स्वीकार करने के लिये तैयार रहोगे - बस, इतना ही नम्र निवेदन कर शासन देव को प्रार्थना करता हूँ कि जगत के सभी जीव ईश्वर का सच्चा स्वरुप समझें, शुद्ध प्रणाली से उसकी आराधना उपासना करें और सभी का कल्याण हो ऐसी ही शुभ भावना.....
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