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________________ ऐसा करते हैं तो ईश्वर में निरर्थक ही राग-द्वेष की स्वार्थी वृत्ति आदि के दोषों का समावेश हो जाता है । एक को सुखका अच्छा फल देने वाले, दूसरे को दुःख का कटु फल देने वाले के रुप में ईश्वर को कारण मानने की आवश्यकता ही नहीं रहती । चलाकर ईश्वर के स्वरुप को राग-द्वेष का कलंक लगाकर काला टीका लगाने के बजाय तो ईश्वर की सच्ची महत्ता बढ़ाने में ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है। अतः पुण्य - पाप तथा उनके फल सुख-दुःख आदि के पीछे अथवा सृष्टि की रचना के पीछे ईश्वर को कारण मानने की तनिक भी आवश्यकता नहीं रहती । ईश्वर के विकल्प स्वरुप कर्मसत्ता को ही कारण मान लो और ईश्वर को शुद्ध उपास्य तत्व तक ही सीमित रहने देना ही सत्य है, ज्ञान है सम्यग ज्ञान है । यदि इसे स्वीकार नहीं करते हैं, तो अकल्पित दोषों का अंबार ईश्वर के सिर मढ़ जाएगा । एक और ईश्वर ही अपनी इच्छानुसार जीवों के पास पुण्य-पाप करवाए, अच्छी-बुरी प्रवृत्तियां करवाए और फिर बेचारे उन जीवों को सुख-दुःख रुप में फल दे - यह कहाँ का न्याय है ? यदि कोई जीव प्रश्न करे कि हे भगवान ! मुझे ऐसा भयंकर दुःख क्यों देते हो , तो क्या ईश्वर कह सकेगा कि तूने ऐसे ही पाप कर्म किये हैं । ऐसी स्थिति में जीव कहीं यह न कह बैठे कि भगवन् ! पाप करवाने वाले तो आप ही हैं । हम तो कठपुतली की तरह आपके हाथ के खिलौने है - आपके निर्देशानुसार ही हम नृत्य करते हैं, हमारा तो कुछ भी चलता ही नहीं है, हम तो स्वेच्छानुसार कुछ भी कर नहीं सकते । जो कुछ भी करवाते हो वह सब आप ही करवाते हो, फिर हमें अच्छे-बुरे फल क्यों देते हो ? पहले तो पाप-पुण्य करवाना और फिर उनके फलस्वरुप हमें दुःख सुख देना, इस के बजाय तो प्रारंभ में ही हमसे अच्छी-बुरी प्रवृत्ति करवाओ ही नहीं, ताकि बाद में फल देने का प्रश्न ही न आए ? आपको भी निश्चिंतता और हमें भी शांति । परन्तु सामान्य जीवों के ऐसे तर्क ऊपरवाला कहां सुनता है ? उसे तो संसार चलाना और समाप्त करना होता है । अतः ईश्वर भी हाथ झाड़कर कह देता है कि भाई ! में भी क्या करूं ? मेरी लीला-इच्छा ही ऐसी है । मैं भी इच्छा और लीला से बंधा हुआ हूँ, विविश हूँ । अब आप ही सोचो कि सर्वशक्तिमान सामर्थ्यवान् ईश्वर भी कैसी लाचारी बताता है ? ऐसी लाचारी में उसका ईश्वरत्व कैसे टिक सकता है ? अतः चलाकर ईश्वर का स्वरुप अधिक से अधिक विकृत करने के बजाय तो इस अर्थ में यहाँ ईश्वर के विकल्प के रुप में कर्मसत्ता को ही कारण मान लेना चाहिये, क्यों कि यह सिद्धान्त अधिक निर्दोष है शुद्ध है, शुभ है 310
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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