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अनेक प्रदेशों में शिव-शंकर भगवान के शिवलिंग पर रस्सी से बाँधकर पानी से भरा हुआ एक मटका लटकाए रखते हैं, और उसके नीचे एक छिद्र करके उसमें कपड़े या रुई की बत्ती डालकर रखते हैं जिससे पानी की एक-एक बूंद शिवलिंग पर टपकती ही रहे - यह दृश्य शिवजी के अधिकांश मंदिरों में देखने में आता है । इसका कारण पूछे तो वे स्पष्ट रुप से कहते हैं कि भगवान शिव कहीं क्रुद्ध न हो जाए, उनके मस्तिक में कहीं गरमी न चढ जाएँ, यदि वे कुपित हो गए
और उन्होंने अपना तृतीय नेत्र यदि खोल दिया, तो भय है कहीं वे इस सृष्टि का प्रलय न कर बैठे ? संपूर्ण विश्व का संहार कर डालें ऐसे हैं शंकर भगवान ! अतः उनका मस्तिष्क सतत ठंडा रखने के लिये पूजा - भक्ति में यह पद्धति उन्होंने डाल रखी है । मटकी का ठंडा पानी सतत उनके सिर पर टपकता ही रहने से उन्हें क्रोध नहीं चढ़ेगा वे सदैव ठंडे ही रहेंगे तब तो संसार का प्रलय नहीं होगा क्यों?
. यह बात टीका टिप्पणी करने की दृष्टि से नहीं लिखी है, बल्कि आँखों से देखी हुई बात है और पूछकर स्पष्टीकरण करके प्राप्त किये हुए उत्तर हैं । यह सब कुछ लिखने के पीछे टीका टिप्पणी करने का कोई इरादा नहीं है, परन्तु यह देखना है कि लोगों ने अपनी मान्यताएँ स्वार्थी तत्त्व जबरन घुसाकर ईश्वर का स्वरुप कितना विकृत कर डाला है, और ऐसी परम्पराएँ चलती रहें तो कालांतर में वे भी सिद्धान्त बन जाती है । ऐसे ही सिद्धान्तों से अंधश्रद्धा प्रचलित हो जाती है और इस प्रकार ईश्वर के स्वरुप में कितनी विकृतियां आ जाती है ।
इस प्रकार कालिक इतिहास का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन करें तो हमें पता चलेगा कि ईश्वर के सिद्धान्तों, स्वरुप की मान्यताओं, श्रद्धा भक्ति आदि के अन्दर हजारों वर्षों के काल में कितनी अंध-श्रद्धा, कितनी विकृतियाँ आ गई हैं, जिन के कारण ईश्वर का स्वरुप ही विकृत हो गया है । यदि ईश्वर का ही निर्दोष स्वरुप न रहा तो उसकी श्रद्धा-मान्यता-पूजा-भक्ति भी कैसी होगी ?
कर्म सत्ता का मानना ही एक मात्र विकल्प है : ___पुण्य - पाप तो शुभ-अशुभ प्रवृति मात्र हैं और उन्हें जीव स्वयं ही करते हैं। इस में ईश्वर को बीच में घसीट लाने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता और पुण्यपापमय जो भी प्रवृत्तियां जीव करते हैं उन्हीं से जीव कर्मोपार्जन करते हैं । कालांतर में जब ये कर्म उदय में आते हैं तब अच्छे-बुरे फल भी जीव स्वयं ही पाते हैं । फलदाता के रुप में ईश्वर को बीच में फँसाने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
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