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हो ? है कोई उत्तर ?
__ हां है । बोलो - लीला क्या है ? इच्छा क्या है ? इच्छा और लीला दोनों एक ही है या भिन्न भिन्न हैं ? इनकी उत्पत्ति किस में से होती है ? ईश्वर लीला या इच्छा के आधीन है अथवा लीला और इच्छा ईश्वर के आधीन है ? यदि ईश्वर को लीला या इच्छा के आधीन मानते हो, तो ईश्वर को परतंत्र मानना पडेगा और ऐसी स्थिति में उसकी स्वतंत्रता का सिद्धान्त नष्ट हो जाएगा और यदि लीला या इच्छा को ईश्वर के आधीन मानोगे तो ईश्वर की ईश्वरता समाप्त हो जाएगी । क्या ईश्वर में इतनी भी शक्ति नहीं हैं कि वह स्वयं अपनी इच्छाओं को भी समाप्त कर सके, तो उसकी ईश्वरता किस प्रयोजन की ? हाँ गई उसकी ईश्वरता ? इस प्रकार यदि इच्छा तत्त्व की पूँछ यदि आप नहीं छोडते हो तो इच्छा तो राग-द्वेष स्वरुप है, अतः आपको ईश्वर को भी रागी - द्वेषी मानना पडेगा, और रागी-द्वेषी तो हमारे जैसे अनंत जीव है, और तब तो सभी ईश्वर हो गए । ऐसा करने पर आपका एकेश्वरवाद का पक्ष भी मिट जाएगा । इस प्रकार आप दोनों ओर से फँस जाते हो अब क्या कहना है क्यों कि आपको ईंट का जवाब पत्थर से दिया गया है ।
राम-द्वेषाधिन फलदाता ईश्वर :
__ जगत् कर्तृत्ववादिओं ने ईश्वर के नाम पर चढ़ाने में कुछ भी शेष नहीं रखा है । इश्वर का सामर्थ्य बढ़ाने के लिये जो कुछ भी आया वह सब ईश्वर के नाम पर चढ़ा दिया गया है । ईश्वर ही जीवों के पुण्य-पाप का फलदाता है । अच्छे, बुरे, मधुर-कुदु आदि सभी फल जीवों को देने का काम ईश्वर का ही है । वेद में लिखा है कि 'अनुग्रह-निग्रह' समर्थों ईश्वर अनुग्रह और निग्रह दोनों ही करने में ईश्वर समर्थ है । यह इसी का कार्य है और इसे करने में वह निष्णात है - समर्थ है | अनुग्रह अर्थांत किसी पर दया करना कृपा या उपकार करना और निग्रह का अर्थ है किसी पर कुपित होना उसका सर्वनाश करना । अर्थांत ईश्वर जिस पर प्रसन्न हो जाता है, उसे राज सिंहासन आदि सब कुछ प्रदान कर उसे समृद्ध बना देता है, और जिस पर कुपित हो जाता है, उसे मिटटी में मिला देता है - उसका सर्वनाश कर डालता है । ये बातें लोगों के मस्तिष्क में बिठा दी गई हैं, इसीलिये जनसाधारण ईश्वर को प्रसन्न करने का ही प्रयत्न करता है, ऊपर वाला कहीं क्रुद्ध न हो जाय, इसके लिये उसकी पूजा करो - उसे मानो, उसका जाप करो - ऐसा भय लोगों में है ।
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