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है ? सर्जन विसर्जन करने का अधिकार तो ईश्वर का ही है । अरे! पर अधिकार जा कर भी कहाँ चला जाएगा ? कुछ तो समझों ! अन्य ईश्वर को तो आप ने माना ही नहीं है । ईश्वरेतर अन्य ईश्वरादि समर्थ महाशक्तिशाली तो कोई है ही नहीं, फिर अधिकार छिन जाने का प्रश्न ही कहाँ उपस्थित होता है ? और यदि कहते हो कि ईश्वर अपना अधिकार बनाए रखने के लिये ही सर्जन विसर्जन करता है, तो वह भी युक्त नहीं है।
इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर सर्जन विसर्जन ही करता रहेगा, तो ईश्वर की नित्यता कैसे टिक सकेगी ? सर्जनकर्ता ईश्वर को नित्य माने या विसर्जन महा प्रलयकर्ता संहारक ईश्वर को नित्य मानें ? दोनों में से एक भी उत्तर दोगे तो आप फँस जाओगे, क्यों कि यदि स्रष्टा ईश्वर नित्य है तो वह नित्य रहेगा और उसके साथ साथ उसका सृष्टि रचना का कार्य भी नित्य ही रहेगा । उसे भी नित्य मानना ही पड़ेगा । सृष्टि की रचना का कार्य यदि नित्य रहेगा तो कभी भी सृष्टि का कार्य पूर्ण हुआ नहीं कहलाएगा । तब तो सृष्टि को सदैव अपूर्ण ही माननी होगी । यदि उसका पूर्ण होना मानोगे तो ईश्वर की नित्यता लुप्त हो जाएगी । यदि नित्यता टिकाए रखोगे तो सृष्टि की रचना सतत स्वीकार करनी ही पड़ेगी और यदि यह पक्ष स्वीकार करोगे तो जो सृष्टि अपूर्ण है, जिसकी सम्पूर्ण रचना हुई ही नही, उसका बीच में ही ईश्वर प्रलय क्यों कर सकता है ? प्रलय तो कब हो जब सृष्टि की संपूर्ण रचना हो चुकी हो, कार्य चल रहा हो और बीच में कोई विकृतियाँ पैदा हो गई हो, पाप - अनाचारादि बढ़ गए हो, तब तो प्रलय करने का कोई कारण भी बन सकता है।
परन्तु जिस ईश्वर की पकड़ ही इस सृष्टि पर पक्की हो, पूर्ण हो एक ही समर्थ और सक्षम ईश्वर हो और वह भी इच्छा शक्ति मात्र से सृष्टि चलाता हो तो उसकी सृष्टि में विकृतियां आने का तो प्रश्न ही कहां रहता है ? और जब विकृत्तियां का ही अभाव हो तो प्रलय करने का क्या प्रयोजन रहता है ? निष्प्रयोजन प्रवृत्ति तो मूर्ख भी नहीं करता है । ऐसे जाल में जब फसने की नौबत आई तो अंतिम ब्रह्मास्त्र उठा लिया कि - यह तो ईश्वर की लीला. ईश्वर की इच्छा इसे ही स्वीकार कर लो - इसे ही प्रलय-संहार आदि का कारण मान लो, क्यों कि लीला और इच्छा के शब्दों से ईश्वर की रक्षा का ऐसा अभेद्य कवच बना लिया है कि कोई इसे भेद ही न सके । अभेद्य कवच इस लीला का ही है । बस, ये शब्द आगे बढ़ा देने से बुद्धि के द्वार बंद ही हो जाते हैं । फिर आप क्या बोल सकते
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