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________________ लीला एक ऐसा शब्द मिल गया है कि उसमें सब कुछ समा जाता है । परन्तु इस दयालु ईश्वर को ऐसी लीला करने का मन ही क्यों होता है ? ऐसी लीला ? क्या अन्य कोई लीला करना नहीं सूझा ? ऐसी लीला किस काम की ? क्या ऐसी लीला करने से ही ईश्वर की महत्ता में वृद्धि होती है ? दूसरी ओर क्या यह निरर्थक श्रम नहीं है ? पुनः पुनः इस सृष्टि का निर्माण करना और पुनः पुनः इसका संहार करके इसे विलीन करना - क्या उचित है ? बार-बार निर्माण करना और बार-बार संहार करना ? इसकी अपेक्षा तो प्रलय - संहार करो ही नहीं, ताकि बार-बार बनाने का प्रश्न ही उपस्थित न हो, दूसरी बार बनाने की आवश्यकता ही क्यों ? कोई प्रश्न ही नहीं उठता । एक बार बनाई हुई ज्यों की त्यों हो तो फिर दूसरी बार बनाने का प्रश्न ही कहाँ रहा ? इससे बढ़िया और क्या हो सकता है? इस प्रकार तो सृष्टि की अनादि-अनंतता - शाश्वतता भी बनी रहेगी - यह उत्तम पक्ष है, इसे क्यों नहीं स्वीकार लेते ? नहीं ऐसा नहीं करोगे, क्यों कि इस पक्ष को मान लेते हो तो फिर ईश्वर तो बेकार हो जाए न, उसे तो फिर निष्काम ही बैठा रहना पडे न ? तो यदि बार-बार सृष्टि निर्माण-महा प्रलय आदि का कार्य ही न रहेगा, तो फिर ईश्वर क्या करेगा? उसके पास फिर तो कोई कार्य ही नहीं रहेगा, तो क्या फिर हाथ पर हाथ रखकर बैठा ही रहेगा । मात्र निष्क्रिय होकर बैठे रहने के बजाय तो सृष्टि का कार्य करता रहे तो यह अधिक अच्छा है, क्यों कि सृष्टि को बनाने चलाने, उसका विलय करने आदि का संपूर्ण दायित्व तो ईश्वर का ही है । उसके सिवाय यह कार्य किसी अन्य से संभव भी नहीं, शक्य ही नहीं है । अतः जिसका जो कार्य है, वही उसे करे । यदि वह नहीं करता है तो अन्य तो कोई भी ईश्वर है नहीं, जो इस कार्य को कर पाए। . परन्तु सज्जनों ! रामायण को आप लम्बी क्यों कर रहे हो ? ईश्वर के पास तो चलाने का कार्य भी अत्यधिक है, बनाने या विनाश करने का काम ईश्वर न भी करे, तब भी चलाने का उत्तरदायित्व कहां कम है ? नित्य सबका हिसाब सम्हालना ? सबको उनके पुण्य-पाप का फल देने का कार्य भी तो आप ईश्वर का ही स्वीकार करते हो न ? यह कार्य तो बहुत बड़ा है संसार में अनंत जीव है । सबका हिसाब किताब रखने का कार्य ही इतना बड़ा है कि ईश्वर इस में से कभी ऊँचा ही नही उठ सकता फिर संहार-प्रलय करने का समय तो ईश्वर को कहाँ से मिले ? नहीं.... नहीं.... हम यदि यह न मानें तो ईश्वर का अधिकार छिन जाता 306
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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