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________________ बदल डाले। ईश्वर के सामर्थ्य से पदार्थो के गुण धर्म ही बदल जाते हैं । तब तो चाहिये ही क्या? फिर तो अजीव में से ही जीव सृष्टि और जीव में से अजीव सृष्टि माननी पडेगी । इसका अर्थ यह होगा कि जीव सृष्टि बनाने के लिये ईश्वर ने अजीव पदार्थों का निर्माण नहीं किया, परन्तु मात्र अजीव पदार्थों का रुपान्तर जीव सृष्टि में किया है तो प्रश्न है कि अजीव पदार्थ किसने बनाए ? ये कहाँ से आए ? क्या जीव में से अजीव बने । तब तो इस प्रकार अनवस्था दोष लगेगा । आज भी अजीव का जीव के रुप में रुपांतर संभव नहीं है, न कभी था और न कभी होता है । यदि ऐसा होता तब तो मिट्टी का घड़ा ही क्यों, मिट्टी से मानव बनता और अग्नि से घड़ा बनता, परन्तु क्या अनंत काल तक प्रयत्न करने पर भी यह संभव है ? नहीं - बिल्कुल नहीं । दयालु ईश्वर सृष्टि का संहार क्यों करता हैं ? ..... ईश्वर के तीन रुप मानकर शंकर-महादेव को सृष्टि के संहार - प्रलय का कार्य सुपुर्द किया गया है । क्या जो माता अपने संतान को जन्म देती है वही माता अपने ही संतान को मार कर खा सकती हैं ? संभव नहीं हैं, क्यों कि उसका वात्सल्य उसका स्नेह उसे ऐसा करने से रोकता है । इसी प्रकार जो ईश्वर माता की भाँति सृष्टि का निर्माण करता है, वही ईश्वर इस सृष्टि का प्रलय महाप्रलय करके संहार कर सकता है क्या ? और यदि करता है, तो उसकी करुणा का क्या होगा ? जो दयालु है, परम कृपालु है ऐसा दया-कृपा-करुणामय गुणयुक्त ईश्वर अपने हृदय में इन गुणों को रखते हुए क्या स्वसर्जित सृष्टि का संहार-प्रलय कर सकता है ? और यदि करता है तो इन गुणों का क्या मूल्य ? फिर तो एक माता भी अपनी संतान को मार कर खा सकती है, परन्तु माता में वात्सल्य - स्नेह का भंडार होने के कारण ऐसी प्रवृत्ति का होना असंभव है, तो महाकरुणावान ईश्वर में इसकी शक्यता कैसे मान लें ? संहार-प्रलय करने के लिये हिंसकवृत्ति, मारने की बुद्धि, सर्वनाश के भाव, भीषण क्रूरता आदि दुर्गुण और भाव कारणभूत हैं, तो क्या ये सभी दुर्गुण आप ईश्वर में स्वीकार करते हैं ? क्या ऐसी स्वीकृति उचित है? और यदि स्वीकार न करते हो तो दया-करुणापूर्वक तो संहार हो ही नहीं सकता, फिर भी संहार प्रलय तो आप मानते ही हो, तो किस कारण से प्रलय मानते हो? वहां तो आप एक ही कारण बताते हो कि ईश्वर यह महाप्रलय या संहार भी लीलास्वरुप ही करता है । यह तो लीला मात्र ही है, क्या आश्चर्य है? 305
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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