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________________ अथवा कोई भी वस्तु बनाती हो, तब भी वह विशाल मशीन भी एक जैसी ही वस्तुएँ बनाती हैं । उसके द्वारा ढाली गई वस्तुओं में एक रत्तीभर अथवा धागे जितना भी अन्तर नहीं होता है । भले ही वह मशीन लाखों - करोड़ो वस्तुएं बनाती हो, पर वह बनाती है सब एक जैसी ही - जब कि मशीन तो जड़ होती है, उसमें तो दया-करुणा जैसी कोई बात ही नहीं होती । उधर ईश्वर तो दयालु है, करुणावान् है, चैतन्य शक्ति स्वरुप है, वह यदि सृष्टि की रचना करता है, तो उसमें शेष ही क्या रह सकता हैं ? उसकी कृति में तो किसी प्रकार का दोष रहने का प्रश्न ही नहीं होना चाहिये परन्तु इस सृष्टि में सैकड़ो दोष और विषमताएँ दिखाई पड़ती हैं - 'यह बात स्पष्ट है, दीपक के प्रकाश की तरह साफ दिखाई देती हैं। , उदाहरणार्थ - एक राजा और एक रंक, एक धनी तो दूसरा निर्धन, एक सुखी तो दूसरा दुःखी, उच्च-अधम, ब्राह्मण-शूद्र स्त्री-पुरूष, कीड़ा-मकोड़ा आदि है। नदी का नीर मधुर तो सागर का जल खारा, एक क्रोधी तो दूसरा क्षमाशील, एक मायावी तो दूसरा सरल, एक साहूकार तो दूसरा चोर, एक कंजूस तो दूसरा उदार-दानवीर, एक दाता तो दूसरा याचक, - इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि सैंकड़ो प्रकार की विषमताओं से परिपूर्ण है, कहीं भी एक जैसी समानता तो दिखती ही नहीं है । इसीलिये यहाँ भी एक ही मां के चार पुत्रों के स्वभाव भी एक जैसे नहीं होता इतना ही नहीं, बल्कि एक ही माता की कुक्षि से जन्मे हुए युगल भी एक जैसे नहीं होते हैं । इन में भी एक बुद्धिशाली तो दुसरा बुद्ध होता है इतनी अधिक विषमता क्यों ? . मान लो कि ऊपरवाला ईश्वर कुम्हार की तरह मिट्टी लेकर भिन्न भिन्न आकार के जिस प्रकार घड़े बनाता है उसी प्रकार प्रत्येक जीव की आकृत्तियां आदि शरीर बनाता होगा, तो ईश्वर ने कितने प्रकार की Dye सांचे बना रखे होंगे ? जिससे एक भी आकृति दूसरी आकृति से मिलती नहीं ? वर्तमान विश्व की छ अरब की जन संख्या में एक से दूसरे व्यक्ति की आकृति नहीं मिलती है । जब कि ये ही दोनों आँखे, दो हाथ, मुँह, नाक, भाल आदि सभी उसी स्थान पर सबके समानरुप से है, फिरभी परस्पर आकृतियां नहीं मीलती । ऐसी विषम ओर विचित्र सष्टि की रचना करने में ईश्वर का ईश्वरपन सिद्ध होता है, बढ़ता है या घटता है? अथवा सर्वथा प्रसिद्ध होता है ? और यदि आप उसे कुम्हार की भाँति कहोगे तब तो ईश्वर को कुम्हार कहने में आपकी आपत्ति होगी तथा संभवतः आपको यह 303
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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