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________________ टूट जाता है और दूसरे की रक्षा के प्रयत्न में पहला टूट पड़ता है । यह तो तीन जोड़ने के प्रयास में तेरह टूटने जैसी स्थिति हो गई । ईश्वर का एक सिद्धान्त ही सच्चा सिद्ध न हो सके तो क्या करोगे ? तो ईश्वरको कैसा मानोगे ? किस स्वरुप में मानोगें? या मात्र ईश्वर शब्द ही स्वीकार करोगे ? भले ही उस शब्द का कोई भी अर्थ न हो, कोई भी सत्य स्वरुप न होने पर भी मानना अर्थात् मानना ही क्यों! तब तो आप जानें और आपका काम जाने । स्वतंत्ररुप से रचित सृष्टि कैसी होती है ? चलो, पुनः विचारणा करते हैं और आपके कथनानुसार मान लेते हैं कि ईश्वर स्वतंत्र है, और स्वतंत्र रुप से सृष्टि की रचना करता है - इस में कोई शंका नहीं, तो स्वतंत्र ईश्वर कैसा है ? दयालु है, करुणामय है, परम वात्सल्यमय है, ईश्वर में तो स्वभावादि की कोई विकृति ही नहीं न ? वह तो शुद्ध एक स्वभावमय ही है न ? ईसाई भी ऐसा कहते हैं कि Oh God ! Thou name is mercy. Thou art merciful. God is compassionate. ईश्वर का ही नाम दया है । ईश्वर दयालु है । भगवान करुणा से भरपुर है । इस प्रकार अच्छे दयालु शब्द से ईश्वर का अभिनंदन करते हैं । ठीक हैं, मान लेते हैं कि ईश्वर करुणानिधान दयनिधि होगा और ऐसा ईश्वर सृष्टि का सृजन करता है और दयाद्रि ह्दयी ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया हो, तब तो पूछना ही क्या ? वह सृष्टि कैसी होनी चाहिये ?. क्या उसमें कोई त्रुटि हो सकती है ? पर प्रश्न यह है कि इन कसाईओं को किसने बनाया ? हिंसा करने वाले हिंसक किसने बनाए ? मछुआरे किसकी कृति है ? वाघ, सिंह, शेर, चीत्ते, तेंदुए आदि घोरहिंसक प्राणी किसने बनाए ? भयंकरवृत्तिवाले नरभक्षी राक्षस किसने बनाए ? भूत-प्रेत-पिशाचों की रचना किसने की ? यदि कहते हो कि ईश्वर ने नहीं बनाए तब तो ईश्वर के हाथों से उसकी रचना करने का अधिकार छिन जाता है - और यह बात आपको जरा भी अनुकूल नहीं, और यदि मानते हो कि इन क्रूरजीवों को ईश्वरने बनाया है, तो ईश्वर की करुणा को ठेस पहुंचती है और पुनः आप दोनों ओर से फँस जाते हो। दूसरी बात यह है कि करुणासागर ईश्वर दयापूर्वक सृष्टि का सृर्जन करे तो सब कुछ एक जैसा ही क्यों न बनाए ? इस सृष्टि में साद्दश्यता क्यो नहीं दिखती? एक जड़ मशीन भी लाखों वस्तुओं का उत्पादन करती है तो वह भी सब एक जैसी ही वस्तुएँ बनाती हैं । उदाहरण के लिये एक मशीन ग्लास, पेन, बटन, मोटरकार 302
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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