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________________ बात प्रत्यक्ष रुप से स्पष्ट सत्य है । तो फिर दूसरा द्रव्य एक मात्र चैतन्य आत्मा है जिसमें ही ज्ञान रहता है, तो क्या वेद को चेतन माना जाय ? कैसे माने ? वेद . चेतना शक्तिमान तो है ही नहीं, सुख दुःख की संवेदना वेद को नहीं होती हैं । वेद ज्ञान-दर्शनात्मक हो ही नहीं सकता, अतः वेद को तो सर्वज्ञ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार वेद की सर्वज्ञता किसी भी प्रकार से सिद्ध होती ही नहीं और ईश्वर वेदाधीन हो गया । वेद में देख-देखकर वह सृजन करता है अतः उसमें सर्वज्ञता टिकती ही नहीं - इस प्रकार दोनों ही में सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती, तो फिर इस पृथ्वी को अल्पज्ञ द्वारा स्थापित - रचित मानें क्या ? दूसरी ओर जहाँ वेद की सर्वज्ञता सिद्ध ही नहीं होती वहीं, आप लोग ईश्वर को सर्वज्ञ मानकर वेदाधीन करते हो तो क्या समजा जाए ? क्या सर्वज्ञ अल्पज्ञाधीन बनकर कार्य करता है । क्या इसमें ईश्वर की मह्ता में न्यूनता नहीं जाती ? ईश्वर अन्य प्रकार से तो कहीं पराधीन नहीं है न ? जगत की विचित्रता, विषमता और विविधता देखते हुए लगता है कि इस संसार में लूले-लंगडे-अपाहिज, अँधे, गूंगे, बहेर, काने, मूर्ख, पंगु, असहाय निराधार, दीन, दुःखी, निर्धन, अनाथ, काले, गोरे, स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक आदि विचित्रता एवं विषमता पूर्ण सृष्टि का निर्माण इयर ने क्यों किया ? इसका आपके पास क्या उत्तर है ? एक अन्य ही उत्तर देते हुए समाधान करते हैं कि ईश्वर ने स्वयं अपनी इच्छानुसार से सभी नहीं बनाए, परन्तु संबंधित जीवों के जैसे जैसे पुण्य-पाप थे तदनुसार उसने उन्हें बनाया है । ईश्वर तो निमित्त मात्र है । मूल में तो सभी जीवों के पुण्य-पाप ही कारणभूत हैं । अर्थात् जैसे जैसे कर्म जीवों ने किए. थे वैसे वैसे ही फल ईश्वर ने उन्हें दिये हैं । किले की प्रदक्षिणा लगाते हुए अन्ततः जैसे अंधे को किले का द्वार मिल जाता है, उसी प्रकार पूर्वपक्षधर आखिरकार कर्मसत्ता पर आए ? कर्म सत्ता मानने के लिये तो तैयार हुए परन्तु उसकी लगाम उन्होंने ईश्वर के ही हाथों में रखी है । हमारे लिये तो प्रसन्नता का विषय है कि अर्धांश में कर्म सत्ता को मानने लगे और हमारी ओर आए परन्तु यह सिद्धान्त भी भली प्रकार समझ पाए हैं या नहीं? ठीक प्रकार से स्वीकार किया है या नहीं ? कहीं रस्सी की जगह गधे की पूँछ तो हाथ में नहीं आई न ? अतः इसका भी स्पष्टीकरण करने हेतु कुछ प्रश्न पूछ लेते 299
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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