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________________ ईश्वर स्वयं स्वतंत्र है या परतंत्र ? एक अन्य प्रश्न यहाँ उपस्थित होता है कि जो ईश्वर इस संसार का सृजन करता है वह स्वयं स्वतंत्र है या परतंत्र ? जो स्वयं स्वतः ही किसी के भी आधीन हुए बिना संसार का सृजन करता है वह स्वतंत्र कहलाता है और जो किसी अन्य के वश होकर पराधीनतावश सृजन करता है वह परतंत्र कहलाता हैं । यहाँ इन दोनों में से आप कौन सा मत स्वीकार करते हैं ? न्याय वैशेषिक तो अपने सिद्धांत के अनुसार ईश्वर को स्वतंत्र मानते हैं । उनका कथन है कि सर्वशक्तिमान, ईधर स्वतंत्र है, वह कदापि परतंत्र होता ही नहीं । जिस सृष्टि का वह सृजन करता है वह स्वयं अपने ही ढंग से स्वतंत्र रुप से करता है, ईश्वर स्वयं सर्वज्ञ है, अल्पज्ञ सदैव परतंत्र होता है, सर्वज्ञ के परतंत्र होने की बात असंभव है । उसे सृष्टि रचना करते समया किसी को पूछने की किसी का परामर्श करने की आवश्यकता न होने से वह स्वतंत्र है। ठीक है, तो यह सब जो आप कहते हैं उसे कैसे माना जाय ? आप अपने शास्त्र - सिद्धान्त के आधार पर कहते हो यह बात तो ठीक हैं, परन्तु आपके ही शास्त्र-सिद्धान्त में कहा गया है कि धाता तथा पूर्वमकल्पयत् अर्थात्. विधाता ने जिस प्रकार पूर्व के कल्पों में सृष्टि की रचना की थी, उसी प्रकार वेदों में देख देखकर पुनः पुनः सृष्टि का सृजन करता है । इससे एक बात तो सिद्ध हो गई है कि ईश्वर स्वतंत्र रुप से सृष्टि का सृजन नहीं करता, उसे भी वेद में देखकर रचना करनी पडती है, तब इससे तो ईश्वर वेदाधीन - पराधीन - परतंत्र सिद्ध हो जाता है या नहीं ? स्वतंत्र व्यक्ति किसी के भी आधीन न होना चाहिये और यदि ईश्वर को आप सर्वज्ञ मानते हो तो दूसरी ओर वेदादीन भी कहते हो । वेद में देख-देख कर ही सृष्टि की रचना करनने वाले में स्वतंत्रता कहां रही ? और ईश्वर को सर्वज्ञ मानने के पश्चात् पुन; वेदाधीन बताने में मूर्खता के सिवाय क्या हैं ? चलो, कदाचित स्वीकार भी कर लें तो प्रश्न यह होगा कि वेद सर्वज्ञ हैं या ईश्वर सर्वज्ञ है ? ईश्वर तो वेद को देखकर सृष्टि बनाता है अतः वे तो सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता तो क्या वेद को सर्वज्ञ माने ? ज्ञान क्या पुस्तकों में रहता है या आत्मा में रहता है ? ज्ञान गुण है या द्रव्य का गुण है ? बिना द्रव्य के गुण कहीं भी स्वतंत्र रुप से रहता ही नहीं । द्रव्य सदैव गुण पर्यायमय ही होता है, अतः ज्ञान गुण है और आत्मा द्रव्य है । ज्ञान एक मात्र आत्मा में ही रहता है । जगत में मूलभूत दो ही द्रव्य है । एक जड़ और दूसरा चेतन जड़ में तो ज्ञान संभव ही नहीं - यह 298
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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