SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थ जैसे प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ की आत्मा के समक्ष पदार्थ और अनंत लोकालोक संपूर्ण रुप से उनके अनंत ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते है । ईश्वर को स्वदेह से अथवा विदेह से सर्वव्यापी होने की आवश्यकता ही नहीं है । यह पक्ष अनेक वीषों से युक्त है, अतः देह से सर्वव्यापकता स्वीकार करने के बजाय अनंत ज्ञानयोग से सर्वव्यापकता स्वीकार करने में दोष रहितता है । शरीर से व्यापक ईश्वर दुःखी होगा : - ईश्वर को यदि शरीर से सर्वविश्व व्यापी मानोगे तो आपको एक और अन्य मुसीबत का सामना करना पडेगा क्यों कि विश्व में नरक भी हैं . नरक-पृथ्वी आदि आप.भी मानते हैं, रौख नरकादि के नाम आपने भी बताए हैं । जहाँ रक्त की नदियाँ प्रवाहित होती हैं भयंकर वेदना-पीड़ा का जहां साम्राज्य है, तथा अत्यन्त अशुद्धि गंदगी आदि के स्थानों की ही जहां बहुलता है, ऐसे प्रदेशो में ईश्वर यदि स्वदेह से व्याप्त होगा तो उस समय ईश्वर को भी नारकीय वेदना तो सहन करनी ही. पड़ती होगी, क्यों कि नरक में तो मार-काट की धूम रहती है और ईश्वर का शरीर भी यदि वहाँ होता होगा, तब तो उसकी सर्व व्यापकता के कारण उसे नरक के दुःख भोगने पड़ते होंगे । इसी प्रकार जगत में सर्वत्र अशुचिमय-गंदे पदार्थों की भरमार स्थल-स्थल पर होगी और ईश्वर को सदेह सर्वव्यापी मानने से उसका अस्तित्व उन अशुचिपूर्ण स्थानों में भी मानना होगा और इन सभी की दुःखानुभूति ईश्वर को सदैव सतत सताती ही रहेगी - इसमें कहीं भी दो मत नहीं हो सकते । तब क्या किया जाए ? क्या ईश्वर को सदैव दुःखी ही माने ? या फिर ईश्वर स्वर्ग का भी तो निर्माण करता है और स्वर्ग भूमि में भी ईश्वर विद्यमान है, तो वहां के आनंद-सुखादि की अनुभूति के अनुसार क्या ईश्वर को सदैव सुखी मानें ? यदि ऐसा मानते हैं तब तो ईश्वरभी हमारी ही भाँति सुखी-दुःखी सिद्ध होगा और तब तो हमारे और ईश्वर में अंतर ही क्या रहेगा ? इसके अतिरिक्त एक ही समय में ईश्वर स्वर्ग-नरक दोनों में ही सशरीरी व्याप्त रहेगा तो एक ही समय में दोनों ही प्रकार के उसे ज्ञान-अनुभव नहीं होंगे क्या ? सुख और दुःख दोनों का ज्ञान एक ही समय में एक साथ कैसे मानोगे । स्वर्ग का सुख और दुःख दोनों ही एक ही शरीरं से एक ही समय में अनुभव करने की बात भी गले कैसे उतरेगी ? इसी प्रकार नरक और अशुचि तो सदा काल-सदैव रहते हैं और ईश्वर भी नित्य है तो फिर ईश्वर को सदैव के लिये दुःखी ही मानना पडेगा । 297
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy