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अनंत लोकालोकाकाश तक केवलज्ञानी देखते हैं
लोक चौदह राज जितना है । यह पंचास्तिकायात्मक है, जब कि अलोक अनंत है । दसों ही दिशाओ में इसका कोई अंत न होने से वह अनंत है । इतने बड़े अनंत अलोक में एक मात्र शून्यावकाश के सिवाय अन्य किन्हीं भी पदार्थों का वहाँ अस्तित्व नहीं है । जीव-अजीव जैसी कोई भी सृष्टि वहाँ नहीं है । वहां कुछ भी नहीं है यह बात भी सर्वज्ञ ने कैसे कही ? क्या बिना जाने-बिना देखे ही कह दिया ? या देखकर-जानकर कहा ? साथ ही परिमित क्षेत्र में जीव-अजीव उभय सृष्टि है - सब कुछ है यह भी सर्वज्ञ प्रभुने देखकर ज्ञानपूर्वक कहा है । यह सब कुछ जानने-देखने वाले ही जैनों के अभिप्रेत केवलज्ञानी और कैवलदर्शनी अनंत ज्ञानी हैं।
ऊपर दिये हुए चित्र को देखने से ख्याल आएगा कि चौदह राजलोक के केन्द्र में ति लोक के मध्य में ढाई द्वीप के भीतरी १५ कर्मभूमि के क्षेत्र में तीर्थंकर पद प्राप्त करके चारों ही घाती कर्मों का क्षय करके, केवलज्ञान-सर्वज्ञता
और सर्वदर्शिता प्राप्त करके स्वदेह में बिराजमान परमेश्वर वहाँ अपने स्वक्षेत्र में स्वस्थान में बैठे बैठे ही अनंत ब्रह्मांड को देखकर जानकर उसका कथन वीतरागभाव से करके हमें सब कुछ बताते हैं । उन भगवान को अनंत लोक-अलोक देखने अथवा जानने के लिये अन्य सभी प्रदेशों में जाना नहीं पड़ता है, न वे स्वशरीर से भी विश्वव्यापी है । उनका शरीर भी हमारे शरीर जैसा ही है और एक स्थान पर बैठे बैठे ही अनंतज्ञान से सब कुछ जानकर-देखकर हमें बताते हैं, अतः उन्हें देह से व्यापक नहीं, बल्कि ज्ञान से व्यापक कहते हैं । सर्वज्ञ परमेश्वर अपनी सर्वज्ञता के कारण सर्वव्यापी हैं - ऐसा कहना सही है, परंतु सशरीरी ईश्वर का स्वदेह से सर्वविश्व व्यापी कहना असत्य का प्रतिपादन है ।
दूसरे प्रकार से इसी चित्र में चौदह राजलोक के ऊपर के अग्रभाग में देखोगे तो आपको दिखाई देगा कि वहाँ पर सिद्ध परमात्मा आसीन हैं । वे अशरीरी हैं आत्मस्वरुप में ज्ञान प्रकाश पुंज मात्र हैं, परन्तु यहीं से अनंतज्ञान लेकर वहां गए हैं । अब वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो चुके हैं, शरीर भले ही नहीं, परन्तु आत्मा तो है ही और ज्ञान आत्माश्रयी है देहाश्रयी नहीं है, इसीलिये वे सिद्धात्मा अपने अनंत ज्ञान से अनंत लोकालोक को देखते हैं, जानते हैं । सशरीरी सर्वज्ञ और अशरीरी सर्वज्ञ सिद्ध दोनों की सर्वज्ञता संपूर्णतः समान होती है, किसी में भी रतीभर भी न्यूनाधिकता नही होती । इस प्रकार जैन दर्शन कहता है कि दर्पण के सामने
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