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________________ ईश्वर ने उन उन जीवों के कर्मों अर्थात् पुण्य-पाप जन्य कृत्य अद्दष्ट देखकर तदनुसार फल देने के लिये उन्हें वैसा बनाया है - आपका यह उत्तर भी सही तो है न ? सर्व प्रथम ईश्वर ने मानवसृष्टि की रचना की, सृष्टि निर्माण करते समय ही प्रथम बार ही किसी को स्त्री तो किसी को पुरुष बनाया, किसी को कृमि, कीट, पतंग, कीड़े - मकोड़े, मच्छर, मक्खी आदि बनाया तब उन जीवों के अद्दष्ट कहाँ से आए ? जीव कहीं अलग तो थे ही नहीं ? उनके अद्दष्ट का तो प्रश्न ही नहीं उठता तो उन्होने वैसे पुण्य-पाप कब किये ? और यदि मानते हो कि उन्होंने किये, तब तो उन जीवों का अस्तित्व पूर्व में कहीं मानना पडेगा ? तो क्या ईश्वर से पूर्व भी सभी जीवों का अस्तित्व मानें ? अथवा सृष्टि रचना से पूर्व भी उनका अस्तित्व माने ? कब मानें ? उन्होने अद्दष्ट कर्म का निर्माण कब किया ? क्या समझा जाए ? दूसरी ओर जीव ईश्वर से भिन्न - अलग अस्तित्व रखता है - ऐसी बात आप मानते नहीं । “जीवो ममेवांश" - नाऽपर जीव मेरा ही अंश है मुजसे अन्य नहीं, अलग नहीं यह आपका सिद्धांत है । तो इसके अनुसार तो जीव ही ईश्वर स्वरुप है । जब जीव का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं, तब उसका अद्दष्ट कहां से आया ? जीव ने अद्दष्ट कहां किया ? चलो, पलभर के लिये आगे विचार करते हैं कि जीव ईश्वर से भिन्न स्वतंत्र भी होगा और उसने पुण्य - पापात्मक अद्दष्ट का निर्माण भी किया होगा । पुण्य अर्थात् मन-वचन-काया के योगों की शुभ प्रवृत्ति। इस प्रकार हम देखते हैं कि मन-वचन और शरीर के बिना तो कोई भी जीव पुण्यपाप की प्रवृत्ति कर ही नहीं सकता अर्थात् जीव पहले शरीर धारी था और उस जन्म में उसने शुभ-अशुभ प्रवृत्ति करके अद्दष्ट-उपार्जन किया होगा । फिर उस अद्दष्ट को देखकर उसके आधार पर ईश्वर ने सृष्टि रचना के समय उसे वैसा बनाया होगा, जन्म दिया होगा - ऐसा मानें क्या ? तब तो इस जन्म से पूर्व भी अद्दष्ट निर्माण करने का जो जन्म था उसे ईश्वर निर्मित न मानने में ईश्वर निर्माण के बाहर भी संसार जीव सृष्टि आदि मानने की आपत्ति आप पर आएगी । तब तो ठीक है, ईश्वर के बिना भी सृष्टि निर्माण हो सकती है। यह पक्ष आप भी मानने के लिये तैयार हो गए हो - और यह तो अच्छी ही बात है । और यदि स्वीकार न करते हो, तो इस जीव ने अद्दष्ट का निर्माण कब किया कि जिसके आधार पर ईश्वर ने उसे जन्म दिया ? इसका उत्तर क्या दोगे? दूसरी ओर जब यह जीव पूर्व जन्म में अद्दष्ट उपार्जन करता था अकेला तो था 300
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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