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________________ नहीं रहता, पर क्या इस बात को शिरोधार्य करने में ईश्वर की अज्ञानताअनभिज्ञता का परिचय नहीं मिलता ? और यदि होता है तो भूल करने वाले को सर्वज्ञ कैसे माना जाय ? ____ तो फिर ईश्वर शरीर द्वारा देहव्यापार पूर्वक यह सृष्टि बनाता है या अशरीरी होकर बिना शरीर के ही इस सृष्टि के सारे काम करता है ? कौन सा पक्ष मानना है ? अशरीरी अर्थात् शरीर विहीन का ईश्वर तो मानना ही नहीं है क्यों कि वेद साक्षी के रुप में पाठ देता है कि “विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतः” प्राणिरुत विश्वतपातः इत्यादि श्रुतेः” वेद श्रुति में शरीर द्वारा ही ईश्वर को सर्व व्यापी कहते हुए उसके अंगोपांगो का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ईश्वर सर्वत्र आँखे, मुख, हाथ और पांव धारण करने के कारण ही विश्वमुखी, विश्वरुपी, हाथ-पाँव-चक्षु आदि वाला है अर्थात् विराट शरीर धारी ईश्वर समग्र विश्वव्यापी है । इस प्रकार सर्वत्र रहा हुआ ईश्वर सभी क्षेत्रों में कार्य कर सकता है - ऐसा भी यदि आप कहते हैं तब भी यह कैसे संभव हो सकता है ? क्यों कि शरीर तो एक ही मानते हो । एक ही शरीर धारी हो तब तो हाथ-पाँव आदि भी दो-दो ही होने चाहियें और भले ही विराट शरीरधारी अपने तरीके से ही कार्य करता हो परन्तु सब कार्य एक साथ कैसे कर सकता है ? क्या शरीर विशाल होने से मात्र से एक साथ सभी कार्य हो सकते हैं । एक छोटा बालक एक-एक पत्थर उठाकर घर बनाने के लिये नींव में डालता है और दूसरी ओर एक विशाल काया वाला लंबाचौड़ा-ऊँचा व्यक्ति सभी पत्थरों को एक साथ उठा कर डाल देगा क्या? कैसे संभव हो सकता है ? यदि आप हाँ भी कहते हैं तो भी हमें तो किसी प्रकार की आपत्ति ही नहीं है क्यों कि ईश्वर अपने हाथ-पाँव चलाकर सृष्टि का निर्माण कर उत्पन्न करता है, यह मानते हैं तो संकल्प मात्र से बना लेता है ऐसा आपके ही वेदों के पक्ष का क्या होगा ? कि आप तो मानते हैं कि ईश्वर की इच्छा-संकल्प मात्र से ही सारा जगत निर्मित हो जाता हैं । इस प्रकार तो आपके ही सिद्धान्त में आपकी मान्यता दूषित हो जाती है, मिथ्या सिद्ध हो जाती है । चलिये ! पुनः क्षमा कर देते हैं और ईश्वर की इच्छा या संकल्प से ही जगत का निर्माण होता है - ऐसा मान भी लेते हैं, परन्तु इच्छा और संकल्प मात्र करने के लिये विश्वव्यापी इतने बड़े विराट शरीरधारी ईश्वर को मानने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? मात्र संकल्प ही तो करना है न ? तो छोटे से शरीर में भी रहकर संकल्प करे तो क्या अन्तर पडता है ? संकल्प का शरीर के साथ कहां 294
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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