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स्वीकार कर अज्ञानता में वृद्धि करने में क्या लाभ है ? फिर तो अज्ञानता के आधार पर अश्रद्धा अथवा अंध श्रद्धा चलती ही रहेगी अतः हमें तो सत्य को स्वीकार करने के पक्ष में रहना चाहिये जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त कर्म सिद्धान्त में आप . दोष निकालकर बताईये । हम उनका प्रतिकार कर दिखाएँगे । सत्य इतना सरल और सहज होता है कि पढते ही गले उतरने लगता है कहीं भी शंका का कारण नहीं रहता ।
दैहिक व्यवहार या संकल्प मात्र से जगत बनता है क्या ?
जगत्कर्ता ईश्वर है - ऐसा कहने वाले ईश्वरवादिओं ने ईश्वर को सर्व व्यापक रूप दे दिया है। इसके पीछे उनका कहना यह है कि संसार ब्रह्मांड स्वरुप में बहुत ही विशाल है । सभी कार्य करने होते हैं । स्वर्ग में, नरक में - सर्वत्र कार्य बहुत करना होता है और ईश्वरछोटा सा शरीर धारण कर यदि एक ही स्थल पर बैठा रहे तो सारे विश्व के कार्य कैसे होंगे ? इसी प्रकार यदि एक ही स्थान पर कार्य करके दूसरे स्थान पर कार्य करने के लिये जाए तो इस प्रकार वह कितने स्थानों में जाएगा ? तब तो ईश्वर थक भी जाएगा और सभी स्थलों के कार्य भी न हो पाएँगे । इसलिये ईश्वर को सर्व व्यापी ही मान लिया है ताकि ईश्वर को कहीं भी जाना आना न पड़े और सर्वत्र काम भी होते रहे ।
चलो, थोड़ी देर के लिये इस बात को भी गले उतारने का प्रयत्न करते हैं कि ईश्वर यदि छोटे शरीर वाला हो और एक ही स्थल पर रह जाए तो अन्य सभी स्थलों पर जानें में असमर्थ रहेगा, परन्तु पहले यह तो समझाओ कि ईश्वर शरीर से अर्थात् शारीरिक श्रम करके कुम्हार - सुथार की भाँति कार्य करता है या मात्र इच्छा संकल्प बल से ही सृष्टि का निर्माण कर डालता है ? क्या करता है ? कैसे करता है ? शायद आप लोग उत्तर देंगे कि ईश्वर शरीर से - देह व्यवहार से ही कार्य करता है और इससे ही सम्पूर्ण जगत के सारे ही कार्य सम्पादित होते हैं । ठीक है, आपके कथनानुसार शारीरिक श्रम करके कुम्हार - सुथार की भाँति ही सब वस्तुएं ईश्वर बनाता है । कुम्हार जैसे अपने शरीर का श्रम जुटा कर घड़ा बनाता है, सुधार को भी लकड़ी की वस्तुएँ बनाने में दैहिक परिश्रम करना पडता है, उसी प्रकार आपकी मान्यतानुसार कथनानुसार तो ईश्वर को भी जगत की सभी वस्तुएँ स्य परिश्रम ( दैहिक परिश्रम) द्वारा ही बनानी पडती हैं तो प्रश्न यह है कि अपनी काया के व्यवहार (श्रम) से पृथ्वी - पर्वत - नदी-नाले- समुद्र - जंगल, वृक्ष
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