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संख्या बढती गई, और बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ गई कि ईश्वर को इन दुर्जनों का संहार करने के लिये अवतार लेना पड़ा । प्रश्न यह उठता है कि इतनी संख्या कब
और कैसे बढ़ी ? क्या ईश्वर की इच्छा के बिना या इच्छा के विरुद्ध या इश्वर की अनभिज्ञता में अपने आप बढ़ गई ? क्या उत्तर दोगे ? एक ओर तो कहते हो कि ईश्वर की इच्छा के बिना, ईश्वर की इच्छा से परे कुछ भी होता नहीं है । ईश्वर जो करता है, वही होता है, तब प्रश्न है कि ईश्वर ने स्वेच्छा से ऐसे दुष्ट-दुर्जनों की ऐसी सृष्टि क्यों बनाई ? और बनाने के बाद पुनः उनका परिहार करने के लिये, उनका संहार करके सज्जनों की रक्षा करने के लिये ईश्वर पुनः अवतार ले-ऐसी बातें कहां तक गले उतर सकती हैं । यदि इश्वर स्वयं सर्वज्ञ ही है और सब कुछ जानता है तब फिर पहले से सोच-समझकर योग्य सृष्टि ही क्यों नहीं बनाता ? जिससे बार बार उसे प्रलय या संहार करने के लिये अवतार लेने की आवश्यकता ही न रहे।
वास्तविक सत्य : __. वास्तविक सत्यता तो यह है कि जीवों के स्वयं के शुभासुभ कर्मों के कारण ही ऐसी स्थिति पैदा होती है । दुष्ट-दुर्जनों को भी ईश्वर बनाता नहीं है परन्तु वे जीव स्वयं अशुभ पाप की प्रवृत्ति करके अपने लिये पाप कर्मों का उपार्जन करते हैं, और उनके ही विपाकोदय पर पुनः वेसी ही पापमय प्रवृत्ति में ही आनन्द लेते हैं । इन दुष्ट दुर्जनों की ऐसी पापमय प्रवृत्ति उनके स्वयं के तथा ऐसे ही प्रकार के विषय-कषाय के.स्वभाव के कारण चलती रहती है और साधु-सज्जन जीव शुभपुण्यमय प्रवृत्ति करके पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं और अपने शुद्ध स्वभाव के अनुरुप व्यवहार करते हैं - यह दीपक तुल्य सत्य स्पष्ट रुप से स्वीकार कर ले तो ईश्वर पर के सभी दोषारोपणों का निवारण हो जाए और निर्दोष व्यवस्था स्थापित हो सके । सर्व मान्य सर्व स्वीकार्य कर्म सिद्धान्त Karma Theory जैन दर्शन की जगत को श्रेष्ठ देन है । हमें तो शुद्ध सत्य स्वीकार करना है, क्यों कि शुद्ध सत्य ही निर्दोष होता है । हमें सत्य के आग्रही या पक्षपाती होना चाहिये । हीरा कीचड़ में पड़ा हो तब भी हम उठा लेते हैं, तो फिर ऐसा दीपक सद्दश सत्य किसी भी धर्म या दर्शन के पास मिलता हो अथवा कहीं भी मिलता हो तो उसे अवश्य स्वीकार कर लेना चाहिये । ईश्वर के विषय में इतनी लम्बी चौड़ी चर्चा करना और उसमें से दोषों पर दोष निकलते ही जाएं तो ऐसी दोषग्रस्त पद्धति को
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