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________________ जाएगी। दूसरी और देखते हैं तो ईश्वर को अपनी भूल के कारण कितना कष्ट, सहन करना पड़ता है । पहले तो ईश्वर ने भूल की जो इन सभी पापी, दुराचारी, व्यसनी, क्रूर, चोर तथा गुंडे आदि जीवों को बनाया । अपनी ही इच्छानुसार इन बेचारों के पास पापमय प्रवृत्तियाँ करवाई और यदि किसी काल में ऐसे जीवों, की ओर से अधर्म की प्रवृत्तियों का बोलबाला हो जाए तो “संभवामि युगे युगे” के भगवदगीता के नियमानुसार ईश्वर को पुनः अवतार लेकर इस धरती पर अवतरित होना पडे - यह कैसी अव्यवस्था ? यदि ईश्वर स्वयं सर्वज्ञ हो तो क्या वह भावि काल से अनभिज्ञ होता है ? सर्वज्ञ तो सदा त्रिकाल ज्ञानी होते हैं, तो क्या उस तथाकथित सर्वज्ञ ईश्वरने बिना भावी का विचार किये ही सृष्टि बना डाली ? ईश्वर स्वयं ही पहले तो चोर-गुंडे आदि बनाता है, स्वयं ही स्वेच्छानुरुप उन से सब कुछ करवाता है और अन्त में उनका संहार करने के लिये उसी ईश्वर को "आत्मानं सृजाम्यहम्” नियम के अनुसार अवतार लेना पड़ता हैं | अधर्मीजनो का संहार करके धर्म का अभ्युत्थान करने के लिये ईश्वर को अवतार लेना पडता है । “कीचड़ में पहले पाँव डालना और फिर उन्हें धोना" जैसी यह निरर्थक प्रवृत्ति पहले से ही ईश्वर ने क्यों की ? पहले करना और फिर सुधारना, यह तो सामान्य अल्पज्ञ जीव का काम है, पर ईश्वर को तो ऐसी निरर्थक बातें शोभा नहीं देती, तब भी ईश्वर ऐसे काम करता है, इसके प्रमाण भगवद्गीता के अध्यायों में मिलते हैं । तब हम क्या समझें ? ईश्वर की सर्वज्ञता कैसे टिक पाएगी ? दूसरी ओर चोर, गुंडा आदि बनाने के पीछे ईश्वर की अज्ञानता तो कहीं कारणभूत नहीं दिखती ? यदि उत्तर हकारात्मक हो तो भूल भरे अल्पज्ञ को भगवान कैसे माना जाय ? ईश्वर अपनी सर्वज्ञता के कारण ईश्वर है । सर्वज्ञता ही सिद्ध न होती हो तो उसके आधार पर ईश्वरता कैसे टिक पाएगी ? दूसरी बात यह है कि ईश्वर की इच्छा यदि चोर-गुंडे, व्यभिचारी, आदि पापीजनों के पास कार्यकरवाती हो तो ईश्वर की ऐसी इच्छा को हम कैसी समझें ? अच्छी या बुरी ? अच्छी तो कह ही नहीं सकते कारण स्पष्ट ही है । और बुरी कहते हैं तो मन में होता है कि क्या ईश्वर अपनी स्वयं की इच्छा से दूसरे जीवों के पास व्यभिचार, दुराचार, खून-हत्या आदि पाप करवाता है । इतनी बुरी इच्छा ईश्वर की है ? और इच्छा तो विचार स्वरुप है । इस जगत में बुरे-पाप करने वाले पापी-दुष्ट-दुर्जनों की 290
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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