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आप लोग संसार में मिथ्या प्रचार क्यों करते हैं कि सृष्टि तो ईश्वर की ही बनाई हुई है । ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है । इस प्रकार मिथ्या असत्य प्रचार करके स्वयं ही ईश्वर का स्वरुप क्यों विकृत कर रहे हो ? क्या ईश्वर को बाज़ी पर लगाकर भी सृष्टि खड़ी रखनी है ? क्या ईश्वर को हानि पहुँचाकर भी इच्छा-लीला या सृष्टि का अस्तित्व बनाए रखना है ? यह कैसे शोभा देता है ? इस प्रकार ईश्वर विषयक मान्यता, ईश्वर निर्मित सृष्टि, ईश्वर की लीला, ईश्वर की इच्छा, इच्छा मात्र में सृष्टि की रचना, ईश्वर का सशरीरी अथवा अशरीरीपन ईश्वर की नित्यता, ईश्वर की सर्वज्ञता आदि अनेक विशेषण पक्ष तर्क - युक्ति की कसौटी पर सही नहीं उतरते हैं ।
यदि इतने से भी संतोष न हो तो अभी भी हम ईश्वर की सर्वज्ञता, ईश्वर की नित्यता ईश्वर का एकाकीपन, ईश्वर की सर्व व्यापकता आदि अन्य भी विशेषण जो पूर्व पक्षी जगत्कर्तृत्ववादी ईश्वर का स्वरुप सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत करते हैं, उन्हें भी कसौटी पर कस कर क्रमशः देख लेते हैं कि ये मत भी सत्य की तर्क युक्ति वाली कसौटी पर कितने शुद्ध सिद्ध होते हैं ? क्यों कि जिस ईश्वर को आजीवन मानना-पूजना-जपना है, जिसकी पूजा-अर्चना-आराधना करनी है उस ईश्वर का स्वरुप यदि विकृत रुप में जानेंगे या समझेंगे तो हमारा सम्पूर्ण जीवन अशुद्ध स्वरुप में आराधना-उपासना करने से निरर्थक जाएगा न ? फिर तो आजीवन आराधना करने का हमें क्या लाभ मिलेगा ? अतः जिसकी एक जन्म में ही नहीं, बल्कि भव-भवान्तर में भी आराधना करनी हैं, उसके विषय में सम्पूर्ण जानकारी - छानबिन करना नितान्त आवश्यक हैं । इसमें यदि कोई त्रुटि रह गई तो भयंकर मूर्खता कहलाएगी । सोने के क्रय में यदि कोई भूल हो गई तो अधिक से अधिक २-४-५-१० या २०-२५ हजार की ही हानि होगी, परन्तु यहाँ तो सारे ही जीवन और आगामी भवों की भी हानि होगी, महामिथ्यात्व का दोष लगेगा और मिथ्यात्व में अनेक कर्मों की दीर्घतम कर्म स्थितिओं का बंध होगा और उन कर्म स्थितिओं के बंध के कारण कितने जन्मों - भवों तक चार गति के. चक्कर स्वरुप संसार में भटकना पड़ेगा । परिभ्रमण करना पडेगा - इसका किसे पता है ? अतः जीवन में ऐसी भीषण भूल न हो जाए, इस दृष्टि से हजार बार विचार करके पहले से सोच-समझकर ईश्वर का स्वरुप स्वीकार करना ही उचित रहेगा।
सम्पूर्ण परीक्षा करने के पश्चात् सत्य स्वरुप समझ लेने के पश्चात् यदि
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