________________
मुक्तात्मा में मन भी नहीं होता, क्यों कि शरीर से ही सदैव के लिये मुक्त हो गए और एक मात्र शुद्धात्म स्वरुप में रहने वाले अशरीरी मुक्तात्मा को न मन होता है न इच्छा, न कार्य निर्माण शक्ति स्वरुप सामर्थ्य इनका त्याग कर वे मुक्त हो चुके है । जन्म-जीवन-मरण, उत्पत्तियोनि, आयुष्य, शरीर, कर्म, अवगाहना आदि मुक्तात्मा में कुछ भी नहीं होता . अतः यदि आप ईश्वर को अशरीरी गिनते हैं तो फिर अशरीरी ईश्वर में तो इच्छा और सामर्थ्य का होना असंगत बात है, इननका तो उसमें सर्वथा अभाव होता है तब फिर अशरीरी ऐसे आप द्वारा मान्य इश्वर ने यह सृष्टि कैसे बनाई ? सृष्टि या लीला कार्य के पीछे नियत पूर्ववृत्ति कारण क्या बताओगे ? यदि कोई भी कारण न मिलेगा तो कार्य सिद्धि कैसे करोगे ?
यह तो आपके लिये “इतो व्याधस्ततो तट” जैसी स्थिति हो गई है । अब यदि आप तोड़ मरोड़कर भी सृष्टि कार्य की सिद्धि करने का परिश्रम करोगे और उसके लिये ईश्वर को कारण बनाने जाओगे तो ईश्वर का अशरीरीपन चला जाएगा और अशरीरीपन जाने के साथ साथ उसका मुक्तस्वरुप भी मिट जाएगा और उसके स्थान पर संसारी राग-द्वेष कर्म बंध युक्त स्वरुप सामने आ जाएगा क्यों कि अविनाभाव संबंध है कि जो जो सशरीरी होते हैं वे सभी संसारी होते हैं और जो जो संसारी होते हैं वे वे निश्चित् रुप से सशरीरी ही होते हैं और दूसरे ढंग से कहें तो जो जो संसारी सशरीरी होते है. वे वे निश्चित् रुप से राग-द्वेषादि कर्मयुक्त ही होते हैं । ऐसे रग-द्वेषादि कर्मबंध सशरीरी संसारी जीव में ही इच्छा मन तथा कार्य कारक सामर्थ्य शक्ति आदि संभव हैं, वे ही ऐसा कर सकते हैं - अशरीरी नहीं कर सकते है ।
इतनी दीपक जैसी स्पष्ट सिद्धान्त की बात हैं तो फिर आप ईश्वर को सशरीरी मानकर उसकी मुक्तावस्था - कर्म मुक्तावस्था क्यों समाप्त कर रहे हो और किसी भी प्रकार से बलात् सृष्टि का कार्य करने के लिये इच्छाधारी ईश्वर को कारण रुप सिद्ध करने का आग्रह क्यों रखते हो ? क्या आप नहीं जानते है कि आपके ऐसा करने से सम्पूर्ण ईश्वर का स्वरुप ही नष्ट हो जाता है ? यह तो गधे की पूँछ पकड़े रखकर लात खाने जैसी बात हैं । इतनी लात खाने, लोह लुहान होने के बाद तो गधे की पूँछ कोई भी समझदार सज्जन, सयाना व्यक्ति अवश्य छोड़ ही देता है । आप भी इस कदाग्रह या दुराग्रह को छोड़ दो, इसी में आपकी समझदारी है, सज्जनता है क्यो कि किसी भी प्रकार से ईश्वर जगत्कर्ता सिद्ध नहीं होता और न किसी भी प्रमाण से यह सृष्टि ईश्वर निर्मित सिद्ध होती है, तब फिर
281