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ही इच्छा है । यदि इच्छा न हो तो लीला भी न हो । जैसे मिट्टी न हो तो घड़ा बने ही नहीं, अग्नि न हो तो धुआँ निकले ही नहीं, इसी प्रकार इच्छा तत्त्व न हो तो लीला भी न हो । अब हमें यदि लीला को रोकना हो तो ईश्वर की इच्छा को भी रोकनी पड़े, परन्तु दूसरे की इच्छा को हम होने से कैसे रोक सकते हैं ? जो स्वयं इच्छा करता है वही अपनी इच्छा को रोक सकता हैं, परन्तु दूसरा व्यक्ति किसी के मन में जागृत होती हुई इच्छा को कैसे रोक सकता हैं ?
इच्छा का जो निरोध करे वह-योगी
इसी ईश्वरने जगत के जीवों को उपदेश देते हुए धर्मशास्त्र में कहा है कि इच्छाओं पर नियंत्रण करना चाहिये । इच्छा है आगास समा अणंतिया अर्थात् इच्छाए तो आकाश की तरह अनंत है, अतः इच्छाओं को उत्पन्न ही न होने दो । उत्पन्न होने से पूर्व ही उन पर नियंत्रण कर लो - Nip the eveil in the bud. क्यों कि उत्पन्न इच्छाओं की पूर्ति बड़ा ही दुष्कर कार्य है । उत्पन्न इच्छाओ को यदि पूर्ण करने लगोगे तो अनेक अनर्थकारी पापों को निमंत्रण दे दोगे । इच्छा होने में तो एक सेकंड लगती है,, पर उत्पन्न इच्छा का कार्यान्वित करने के कठोर परिश्रम में नाना प्रकार के अनेक पापों से घिर जाओगे अतः इच्छाओं का निरोध करने में ही भलाई है - हित है . यदि इच्छाओं का निरोध करोगे तो योगी बन जाओगे वरना विपरीत स्थिति में तो भोगी ही रहोगे और इच्छाएँ करते करते दुःखी हो जाओगे, क्यों कि सभी की सभी इच्छाएँ कभी भी फलीभूत नहीं होती । सबके जीवन में द्दष्टिपात करें तो हमें दिखता हैं कि इच्छानुसार कभी कुछ भी नहीं होता - यह बात अकाट्य है । कहा है कि - दरिद्राणां मनोरथा मनसि एव विलीयन्ते दरिद्रनारायणों के मनोरंथ मनकी इच्छाएँ मन में समा जाती है - विलीन हो जाती हैं । इच्छानुसार कुछ भी नहीं होता, अतः इच्छाओं पर नियंत्रण रखो ।
ईश्वर के धर्मोपदेश की ये सभी बातें सच्ची, परन्तु इच्छाओं का नियंत्रण करें कैसे ? क्यों कि इच्छाएँ तो मन के आधीन हैं - ये मन में ही उत्पन्न होती हैं, अतः यदि मन पर अंकुश रखा जाए तभी इच्छा पर नियंत्रण रह सकता है, परन्तु मन वश में नहीं रहता - इसी की तो यह रामायण है । न तो इच्छाएँ छूटती हैं, न इन पर अंकुश लगता है और इसीलिये तो संसार में जीव दुःखी होते हैं, । इच्छा के कारण अनेक जीवों का जीवन दुःखो से परिपूर्ण रहता है । इसीलिये ईश्वर नने योग साधना-ध्यान मार्ग बताए हैं और कहा है कि इस ध्यान और योग साधना के
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