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________________ सृष्टि के निर्माता को सर्वज्ञ कैसे कह सकते हैं ? क्यों कि भूल किससे होती है - सर्वज्ञ से अथवा अल्पज्ञ से ? भूल तो अल्पज्ञ ही करता है । अल्पज्ञ तो हम हैं। यदि भूलों से भरी सृष्टि के रचयिता ईश्वर भी इस प्रकार अल्पज्ञ सिद्ध हो तब तो अल्पज्ञता की दृष्टि से हम और ईश्वर एक ही स्तर पर आ जाते हैं, समान सिद्ध हो जाते हैं । यदि हम और ईश्वर दोनों समान ही हों, तब फिर ईश्वर को ही महान कहने के पीछे क्या आधार हो सकता है ? कुछ भी नहीं । और जब कुछ भी नहीं मिलता है तो सृष्टिवाद पुनः आगे रख देते हो । भूल तो भूल ही होती है - चाहे मानवकृत हो या ईश्वर कृत । भूल एक अपराध हैं, चाहे वह मनुष्य से हो या ईश्वर से हो । भूल भरी सृष्टि बनाने वाला यदि ईश्वर है तो वह भी अपराधी ही है, उसे महान् कैसे कह सकते हैं ? उस में और सामान्य मानव में कोई अन्तर नहीं रहता जब सारी सृष्टि एक समान ही बनानी है तो बनी हुई सृष्टि का संहार करने का प्रयोजन क्या ? वेद में भी कहा है कि 'धाता यथा पूर्वमकल्पयेत्' विधाता ने जिस प्रकार की सृष्टि की रचना पूर्व में की थी उसी प्रकार - वैसी ही सृष्टि इस बार भी बनानी है । और आगे भी बनानी है । इससे एक बात तो यह सिद्ध हो जाती है कि सर्व काल में सृष्टि एक जैसी ही होती है । एक के बाद दूसरी में किसी प्रकार का सुधार-वृद्धि जैसा कुछ भी नहीं होता है, तब तो बनी हुई सृष्टि का संहार कर पुनः वैसी ही दूसरी बनाने में तो ईश्वर का श्रम निरर्थक ही हुआ न ? इसका अर्थ क्या यह समझें कि ईश्वर निरर्थक - बिना प्रयोजन भी कुछ करता है? नीतिकार तो कहते हैं कि - "प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोडपि न प्रवर्तते-" अर्थात् प्रयोजन - उद्देश्य के बिना तो मंदबुद्धि मूर्ख भी कोई प्रवृत्ति नहीं करता - तब फिर ईश्वर जैसा महान् ईश्वर क्या निष्प्रयोजन ही प्रवृत्ति करता है ? यह बात कैसे मान लें ? क्यों कि दूसरी ओर सिद्धान्त मुक्तावलीकार ईश्वर को इन शब्दों से अभिवादन करते हुए कहते हैं कि 'लीलाताण्डवपंडित' अर्थात तांडव लीला करने में निष्णात हैं ऐसे शंकर भगवान... । इस स्तुति में तांडव लीला शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार महाप्रलय या संहार के पीछे जब कोई कारण या प्रयोजन न मिला तब ईश्वरवादिओं ने संहार अथवा महा प्रलय को मात्र लीला शब्द कहकर बात को छोड़ दी है । सृष्टि निर्माण की बात भी लीला और सृष्टि संहार की बात भी लीला? सब लीला ही लीला हैं तो फिर यह लीला क्या है ? ___ यहाँ उत्तर देते हैं कि लीला अर्थात् मात्र ईश्वरेच्छा । लीला का मूल कारण 277
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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