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________________ वाले होने से ईश्वर ही सिद्ध हो जाते हैं, अतः यह पक्ष भी मान्य नहीं हैं। ठीक है तो फिर हमारा अगला प्रश्न यह है कि यदि आप कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है - नित्य है तो वह किस स्वरुप में नित्य है ? ईश्वर सशरीरी स्वरुप में नित्य है या अशरीरी स्वरुप में नित्य है ? इच्छायुक्त ईश्वर नित्य है या अनिच्छायुक्त ईश्वर नित्य है ? सृष्टि कार्य स्वरुप में नित्य है अथवा सृष्टि कार्य के बिना भी नित्य हैं। इस प्रकार अनेक प्रश्न उपस्थित होंगे, परन्तु देखना यह है कि कितने प्रश्न सुसंगत उतरते हैं ? यदि ईश्वर सशरीरी ही न हो तो सृष्टि की रचना वह कैसे कर सकता है ? इस संबंध में चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं । अशरीरी अर्थात् मुक्त के तो हाथपाँव आदि अंगोपांग शरीर के अभाव में होते ही नहीं, तब वह सृष्टि का निर्माण कैसे कर सकता है ? यदि सशरीरी मानते हैं तो उसका नित्यत्व समाप्त हो जाता है । यह तो मेंढक - क्रीडा जैसा हुआ । एक मेंढक को पकड़कर रखा और दूसरे को पकड़ने गए कि पहला बच निकला और उसे पकड़ने के प्रयत्न में दूसरी छलांग मार जाता है । परिणाम यह होता है कि घंटो तक अथक प्रयत्न करने वाला भी आखिरकार उबता जाता है। ऐसा ही तमाशा यहाँ भी है । ईश्वर के सबंध में भी तीन जोड़ने के प्रयास में तेरह टूटने जैसी स्थिति है । ऐसी कठिनाइयों से पूर्ण ईश्वरकर्तृत्ववाद का यह सिद्धान्त है, फिर भी मानना मतलब मानना - ऐसा हठाग्रह है - कदाग्रह है, परन्तु कदाग्रह से सत्यता या वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है । अब सृष्टि कार्य साधने के लिये यदि सशरीरी पक्ष को पकड़े रखते हैं तो नित्यता का पक्ष चला जाता है । बात स्पष्ट है कि सशरीरी सदा काल तो नित्य कैसे रहेगा? शरीर जड़ पौद्गलिक है । आत्मा नित्य है । आत्मा शरीर-परिवर्तन करती ही रहती है । इस शरीर परिवर्तन की प्रक्रिया को ही जन्म-मरण कहते हैं। एक शरीर को धारण करना जन्म कहलाता है, धारित शरीर में निश्चित काल तक रहने का नाम जीवन है और अवधिपूर्ण होने पर उस शरीर के परित्याग का नाम मरण-मृत्यु है । तक तो क्या समझा जाए ? क्या ईश्वर भी इस प्रक्रिया से गुजरता है ? क्या वह भी जन्म -जीवन और मृत्यु धारण करता है ? तब तो उसमें और हमारे में अन्तर ही क्या रहा ? फिर तो नित्यता का पक्ष टिकता ही नहीं और अनित्यता का पक्ष तो हमारे जैसा ही है । अनित्यता पक्ष तो हमें लागू होता है और वही अनित्यता का पक्ष यदि ईश्वर को भी लागू हो तब तो अनित्यता की 267
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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