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________________ और यदि न हुई तो क्यों न हुई ? क्या ईश्वरेच्छा अधूरी थी ? तब तो ईश्वर की सर्वज्ञता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है । सर्वज्ञ हो तो अधूरी इच्छा क्यों करे? सर्वज्ञ वही कहलाता है जो सभी पदार्थों के द्रव्य, गुण, पर्यायों को जानसकता हो तो सर्वज्ञ ईश्वर को एक साथ सभी पदार्थों को उत्पन्न करने की सभी इच्छाएँ एक साथ क्यों न हुई ? क्या ईश्वर के इच्छा करने पर भी सृष्टि के सभी कार्य तत्काल सम्पन्न नहीं होते ? इससे तो क्या समझा जाए ? या तो ईश्वर की इच्छा अधूरी अथवा ईश्वर के सामर्थ्य में न्यूनता थी । सामर्थ्य में न्यूनता का क्या कारण हो सकता है ? सामर्थ्य क्या तप या साधना करने से प्राप्त हुआ था । सामर्थ्य किससे प्राप्त होता है । सामर्थ्य यदि तप या साधना से प्राप्त हुआ था, तो ईश्वर ने किसकी साधना की थी जिससे वह सृष्टि निर्माण करने में सफल हो सका ? यदि अब सामर्थ्य में न्यूनता आई तो ईश्वर क्या करेगा ? क्या वह पुनः तप या साधना करने जाएगा? सृष्टि रचना कैसे करेगा ? यदि रचना करेगा भी तो अपूर्ण सामर्थ से अपूर्ण सृष्टि ही बना पाएगा और अधूरा सामर्थ्य होगा और बनाएगा नित्य प्रतिदिन बनाएगा तब भी अधूरी सृष्टि ही बन पाएगी । अधूरी बनने में दोनों प्रकार से अधूरी कहलाएगी । कार्य, या तो बिगड़ जाए अथवा पूर्ण न हो इन दोनों ही कारणों से कार्य की अपूर्णता मानी जाती है । अव इन में से कौन सा पक्ष स्वीकार करें ? क्या यह माने कि ईश्वर के हाथों से सृष्टि - रचना के अनेक कार्य बिगड़ गएं ? कार्य जैसे होने चहिए थे, वैसे न हो पाए । अतः सृष्टि-कार्य में विकृत्ति आ गई। यदि यह पक्ष स्वीकार करते हैं, तो ईश्वर की सर्वज्ञता का पक्ष हाथ में से खिसक जाता है । तो क्या सर्वज्ञ के हाथों से भी कार्य बिगड़ जाते हैं ? यह कैसे संभव हो सकता है ? यदि कार्य बिगड़ जाता है तो अज्ञानता सिद्ध होती है और अज्ञानता अल्पज्ञता की परिचायिका है ? कि सर्वज्ञता की ? और ऐसा अकुशल अल्पज्ञ यदि सृष्टि बनाता है तो नित्य प्रतिदिन बनाते रहने पर भी उसकी क्रियाकुशलता को हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? तब तो नित्य प्रतिदिन कार्य विगड़ते जाते होंगे ? तब इस विषय में ईश्वर के पास शिकायत लेकर कैसे जाए? शिकायत करें भी तो क्या और किसे करें ? ___ यदि अल्पज्ञ की ही सृष्टि माननी हो तब तो हम सभी जीव अल्पज्ञ ही हैं। तब फिर हमारे द्वारा ही निर्मित-रचित सृष्टि मान लें तो इस में क्या आपत्ति है ? अल्पज्ञ की सृष्टि मान लें तब तो हम सभी मनुष्य अल्पज्ञों की गणना में ही आने 266
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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