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कायिक जीव स्वयं ही है । इस प्रकार पानी-अग्नि-वायु-वनस्पति आदि सभी को जीव जन्य ही मानने में बद्धिमत्ता है । ईश्वरजन्य मानते हैं तो ईश्वर का ही स्वरुप नष्ट हो जाता है ।
सिद्धान्त का परस्पर विरोध -
न्याय-वैशेषिकमतादि जगत् कर्तृत्ववादी दर्शन और ऐसी ही मान्यता रखने वाले लोगों के परस्पर विरोधी वाक्य सिद्धान्तों की प्ररूपणा के समय होते हैं । एक ओर ईश्वर को उत्पन्न होने वाला बताया । स्वर्ण के अंडे में से विराट स्वरुप को उत्पन्न होने वाला बताया और फिर उसे ही नित्य भी बताया । क्या जो उत्पन्न होता है वह नित्य रहता है ? या अनित्य रहता है ? शाश्वत सिद्धान्त के अनुसार तो जो उत्पन्नशील है वह विनाशशील ही है - अनित्य है ? जो अनुत्पन्नशील है वह सदैव नित्य है - शाश्वत है - अविनाशी है । जो उत्पन्न होता वही नष्ट होता है और जो कभी भी उत्पन्न ही नहीं होता वह सदाकाल नित्य शाश्वत रहता है। वह कभी भी नष्ट नहीं होता है ।
__ संसार में दोनों स्वरुप के द्रव्य हैं । आत्मा अनुत्पन्न द्रव्य है । आत्मा को ईश्वर ने नहीं बनाया है, अतः आत्मा उत्पन्न द्रव्य नहीं है और इसीलिये यह नष्ट होने वाली नहीं है, बल्कि सदैव शाश्वत अजर अमर रहने वाली है । मात्र संबंधित जन्म में जाने के लिये संबंधित शरीर में आत्मा को उत्पन्न होना पड़ता है । वह देहोत्पत्ति है अर्थात् देह में उत्पन्न होने की बात है, परन्तु आत्मा की उत्पत्ति नहीं है । इसी प्रकार ब्रह्मांड-चौदह राजलोक, तथा धर्मास्तिकाय - अधर्मास्तिकाय, आकाश, परमाणुं आदि पदार्थ सदैव नित्य हैं - शाश्वत हैं, अतः उत्पन्न शील द्रव्य नहीं हैं । ये अनुत्पन्न अविनाशी द्रव्य हैं । ईश्वर को उत्पन्न होने वाला मानें तो फिर उसके नित्य होने की बात कैसे सिद्ध होगी ? यदि ईश्वर को नित्य न मानते हैं तो उसे विनाशी - नष्ट होने वाला तत्त्व मानना पड़ता है । यदि ऐसा करते हैं तो इसमें दोष लगता है और ईश्वर की ईश्वरता नष्ट हो जाती है, उसका स्वरुप ही नष्ट हो जाता है । इस प्रकार यदि ईश्वर ही नष्ट हो जाय तब फिर सृष्टि का निर्माता कौन? अतः ईश्वर जब नित्य मान लिया तो उत्पन्न होने वाला क्यों माना ?
यदि उत्पन्न होने वाला और नित्य - ऐसा दो प्रकार के ईश्वर मानना हो तो ईश्वर के उत्पन्न - नित्य दोनों धर्म दोनों स्वरुप मानने पड़ेगे । एक ईश्वर तो नित्य स्वरुप में ब्रह्माजी है और दूसरे उनके द्वारा उत्पादित विराट पुरुष जो सृष्टि की
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