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________________ कसी प्रकार की समझदारी नहीं है । अतः न्याय - वैशेषिकों ने कहना या मानना और अनुमान का जो स्वरुप ईश्वर को सिद्ध करने हेतु दिये हैं वह हेतुविहीन सिद्ध हो जाता है । क्षित्यंकुरादिक सर्व कर्तृजन्य, कार्यत्वात् घटवत् - इस अनुमान के पृथ्वी-पर्वत-नदी-नाल-वृक्षपत्ते पानी- अग्नि आदि संबंधित कक्षा के सभी पदार्थ उस उस काया के जीव उसमें रहकर स्व कर्मानुसार बनाते हैं - निर्माण करते हैं, फिर अद्दश्य कारणरुप - ईश्वर को बीच में लाकर उसके हाथ किचड़ में मैले करने के बजाय तो दृष्ट स्पष्ट प्रत्यक्ष जीव को ही कर्ता मानने में कहाँ कठिनाई आती हैं ? वृक्ष पत्ते वनस्पतिके जीवों की सिद्धि तो आज जड़ विज्ञान भी मानने लग गया है । वैज्ञानिक भी अ तो मानने लगे है । कि वनस्पति में भी जीव है The plant have a life- ऐसा वे कहने लगे हैं । एक बीज में वनस्पति का जीव है, उसे हवा-पानी - आकाशादि का संयोग मिलने पर वह भी जीवित रहता है, जमीन में पानी खाद का आहार ग्रहण करके वह अंकुर के रुप प्रस्फुटित होता है और उसकी वृद्धि होती है । बढ़ते बढ़ते उसमें तना साखा प्रशाखा, पत्ते, फल-फूल आदि अंग तैयार होते हैं । उसका इतना विकास कहाँ से हुआ ? जड़ पड़ा पड़ा बढ़ता है या जीव ? जड़ में बढ़ने का क्या है ? हजारों वर्षों तक रहने पर भी ईंट, चूना पत्थर मकानादि एक भी नहीं बढ़ते, क्यों कि वे जड़ पुद्गल पदार्थ हैं जब कि जीव में वृद्धि हानि विकास इत्यादि सब कुछ वृद्धि व क्षय के परिवर्तन होते रहते हैं । मकराने की संगमरमर की खान को देखो । वहाँ से निकलने वाला संगमरमर समाप्त हो जाने पर उस खान को मिट्टी से भर दी जाती है । वर्षा होने पर पुनः पानी भर जाता है । पृथ्वीकाय के पार्थिव जीव पुनः उसी उत्पत्ति स्थान स्वरुप स्व. योनि में आकर जन्म लेते हैं, स्व शरीर की रचना करके उसे विशाल बनाते हैं । इस प्रकार सो-दो सो वर्षों में वह पुनः भर जाती है और पुनः खोदने पर उसमें से संगमरमर निकलता है । इस प्रकार यह क्रम चलता ही रहता है तो बताओ यहां बीच में ईश्वर कहाँ से आया ? जीव स्वयं ही स्वकर्मानुसार जाता है • बनता है और जिन्दा रहता है - इतनी स्पष्ट दीपक समान प्रत्यक्ष बात होने पर भी उसे छोड़कर पृथ्वी-पर्वतादि को बनाने वाले ईश्वर को अलग रुप से मानने में कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? इसके स्थान पर तो संबंधित जीव को ही स्वः स्वः कर्मधर्म जन्म-मरण जीवन आदि का कर्ता मान लें तो कोई दोष नहीं रहता । पृथ्वी पर्वतादि तो पार्थिव पदार्थ ही है और पार्थिव - पृथ्वी पर्वतादि को बनाने वाले पृथ्वी 263 =
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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