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________________ उनमें जीव का अस्तित्व ही न रहा, तब हमने जड़ के रुप में काम में लिया । कर्ता जीव या ईश्वर ? __ इस प्रकार जीव कर्ता के रूप में सिद्ध होता है न कि ईश्वर । संसारी जीव कर्माधीन हैं । वे स्व - स्व कर्मानुसार अपने - अपने ढंग से जन्म-जीवन-मरण धारण करते हैं और एक गति से दूसरी गति में आवागमन करते हैं । देह को पुद्गल के स्वरुप में यहाँ छोड़ देते हैं, और उन्हीं पुद्गल स्वरुप परमाणुओं को अन्य जीव आकर पुनः ग्रहण-धारण करते हैं और इस प्रकार पुनः अन्य जीव के रुप में उनका व्यवहार चलता है । जीव जन्म लेता है, जीवनयापन करता है और मरता हैं, आता है और जाता है । गत्यन्तर कालान्तर आदि सब कुछ होता है । यह सब कुछ जीव स्वयं स्व-स्व कर्मानुसार ही करता है । तव यहाँ बीच में ईश्वर को घसीट लाने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? संसारी जीव को ही स्वकर्म का कर्ता भोक्ता आदि स्पष्ट रुप से कहा गया हैं । यः कर्ता कर्म भेदानां, भोक्ता कर्मफभस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता स ह्यात्मा नान्यलक्षण : ॥ .. पूजनीय हरिमद्रसूरि महात्मा षड्दर्शन समुच्चय में स्पष्ट रुप से बताते हैं कि जो स्वकर्म का कर्ता है उसके फल को भोक्ता भी स्वयं ही है, चारों ही गतिओं में आवागमन करने वाला, जन्म-मरण को धारण करने वाला है, वही आत्मा है। उसके सिवाय अन्य कोई जड़ादि आत्मा नहीं है । इससे जीव स्वयं ही कर्म का कर्ता और फल का भोक्ता सिद्ध होता है। यह निर्दोष पक्ष मानने में ही सत्यता है वास्तविकता है, फिर ईश्वर को अथवा ईश्वर की इच्छा को बीच में लाने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? स्पष्ट प्रत्यक्ष कारण को अपनी दृष्टि सम्मुख देखने पर भी उसे स्वीकार न करके अनुमानादि से ईश्वर को सृष्टि कर्ता सिद्ध करने की द्रविड प्राणायाम की विपरीत यात्रा करने की जरुरत ही कहाँ रही ? ईश्वर का महत्व घट जाता है, दूसरी ओर ईश्वर का स्वरुप ही विकृत हो जाता है, तीसरी ओर ईश्वर के सिर पर दोषों का अंबार मढा जाता है और फिर भी ईश्वर निर्दोष कर्ता के रुप में कसौटि पर से पार उतर सकता ही नहीं, किसी भी प्रकार से, किसी भी प्रमाण से कर्ता सिद्ध हो ही नहीं सकता । मात्र जीव ही स्वयं कर्ता के रुप में सिद्ध होता है, और वह स्वकर्मानुसार करता है, तदनुसार ही होता है । इसमें ईश्वर को बीच में लाने में 262
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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