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वनस्पतिकायिक जीव वृक्ष पत्ते आदि के रुप में अपना शरीर बनाते हैं । वे भी हवा-पानी-आदि जीवनोपयोगी वस्तुएँ प्राप्त करते हैं, शरीर की रचना करते हैं, अवगाहना के अनुसार देह का विस्तार करते हैं । आयुष्य परिमित काल के अनुसार जीवित रहते हैं और एक दिन आयुष्य पूर्ण होने पर अपनी जीवन लीला समाप्त करके वृक्ष पत्रादि का अपना शरीर छोड़ कर चले जाते हैं । जिस प्रकार हम मनुष्य जीव कहलाते हैं, उसी प्रकार ये भी वनस्पतिकाय - पृथ्वीकाय आदि के जीव कहलाते हैं और हम जिस प्रकार आयुष्य काल समाप्त होने पर यह देह छोड़कर चले जाते हैं, उसी प्रकार इन जीवों का भी आयुष्यकाल होता हैं । एक शरीर में निश्चित् काल तक जीव के रहने काल आयुष्यकाल कहलाता है और यह आयुष्य पूर्व जन्म में बद्ध कर्मानुसार होता है कर्म बाँधने वाला जीव स्वयं हैं । जीव के सिवाय अन्य कोई कर्म बाँध नहीं सकता । लोहचुम्बक जिस प्रकार स्वयं लोहे के रजकणों को आकर्षित कर ग्रहण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा स्वयं अपने राग-द्वेष के आधार पर बाह्य वातावरण में से कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को खींचकर उन्हें पिंड रुप में बनाता है और कालान्तर में उन कर्मो के विपाकोदय पर तदनुसार व्यवहार करता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव स्वयं ही कर्ता है । कर्तापन में संसारावस्था में कर्म ही उसका मुख्य कारण हैं।
सूक्ष्म से लगाकर स्थूल कक्षा के, छोटी से बड़ी कक्षा के अनेक प्रकार के जीव संसार में है । संक्षिप्त कोष्टक को देखने से बात समझ में आ जाएगी।
जीव
त्रसजीव
स्थावरजीव
पृथ्वीकाय अप्काय
तेउकाय
वायुकाय वनस्पतिकाय
सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर साधारण प्रत्येक
सूक्ष्म बाट
विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय (पंचेन्द्रिय)
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