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विविधता कभी भी दिखाई न दे क्यों कि ईश्वर तो दयालु है करुणावान, दया का सागर, करुणानिधि है । ईसाईयोने भी कहा है Oh God ! Thou name is Mercy. Thou art Mercifull अर्थात् आपका ही नाम दया है, आप ही दयामय करुणानिधान हो । ईश्वर दयालु हो और स्वेच्छा से ही कार्य करता हो तो फिर रचना करने में पक्षपात या भेदभाव करे भला ? क्यों करने लगा ? और यदि करता है तो समझ लो कि ईश्वर भी राग-द्वेषाधीन है और राग-द्वेष मोहादि, कर्मजन्य है अर्थात् ईश्वर कर्मयुक्त सिद्ध होगा और यदि कर्मयुक्त रागी-द्वेषी को ही ईश्वर मानना हो, तब तो मनुष्य भी राग-द्वेष मोहादियुक्त हैं, वह भी पक्षपात-भेदभाव करता है, तब उसे ही ईश्वर मानने में क्या बुराई है ? क्यों फिर ईश्वर तक.लंबा चलें ? परन्तु नहीं हमें तो ईश्वर का अस्तित्व बनाए रखना है न?
ठीक है, ईश्वर का अस्तित्व नकारा नहीं है, नकारते हैं तो नास्तिक सिद्ध हो जाते है, अतः किसी भी रूपमें ईश्वर को तो मानना ही है न ? न देखा - न, अनुभव किया और न सिद्धांतादि - शास्त्र ग्रंथाधार पर स्पष्ट चित्र उपस्थित होता, फिर भी मन को तो मनाना ही पड़ेगा अतः चाहे जैसे भी मान लें और मानने के साथ ही सृष्टि रचना का कार्य हाथ लग गया । अतः इसे ही मानने बैठ गए, ईश्वर को मानने में अन्य कुछ भी हाथ में नहीं आया, तो मात्र सृष्टि रचना का कार्य ईश्वर के गले में पाश की तरह लटका दिया गया है । ईश्वर तो सृष्टि की रचना करता है या नहीं, यह बात तो दूर रही परन्तु दार्शनिको - तर्कशास्त्रियों ने अपनी तर्क बुद्धि लड़ाकर ईश्वर को जगत का कर्ता ठसा दिया है - ऐसा लगता है । इनमें से कोई भी देखने नहीं गया है कि ईश्वर सृष्टि बनाता है। किसी ने ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किये हैं । किसी ने प्रत्यक्ष नहीं देखा है कि ईश्वर इस प्रकार सृष्टि की रचना करता है और देखने के बाद सृष्टि रचना का स्वीकार किया हो ऐसा भी नहीं है, परन्तु दार्शनिकों ने अपने मस्तिष्क की ही उत्पत्ति निकाल कर जगत को दी हो - ऐसा लगता हैं | पर प्रश्न यह हैं कि प्रत्यक्ष से संतोष मानने के स्वभाव वाले दार्शनिकों ने बिना प्रत्यक्ष के भी अनुमानादि प्रमाणों से संतोष कैसे मान लिया ?
कौन अदृश्य ? ईश्वरेच्छा या सृष्टिरचना ?
दृश्यादृश्य का विचार करने पर प्रश्न यह खड़ा होता है कि अदृश्य कौन? ईश्वर ! उत्तर में ईश्वर को अदृश्य मान सकते हैं, और इच्छा तो मनोगत क्रिया है,
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