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________________ - हां, आपकी बातें भी सही है । पहले ईश्वर को इस पृथ्वी पर्वतादि सृष्टि से अलग करो । ईश्वर का अपमान करना बंद करो फिर पृथ्वी पर्वतादि सृष्टि का रचयिता ढूंढना कोई कठिन कार्य नहीं है । यह तो बिल्कुल स्पष्ट दीपक जैसी बात है कि जगत के अनंत जीव स्वयं स्वतः अपनी आवश्यकता खड़ी करते हैं, सहयोगी निमित्त कारण मिलने पर जीव स्वतः ही अपना विकास साधते हैं, शरीरादि की रचना करते हैं । बीज पड़ा हो और उसे हवा-पानी, प्रकाश और अनुकूल भूमि प्राप्त हो जाए, तो वह बीज ही फलीभूत होकर वृक्ष के रूप में विकसित हो जाता है । एक दिन वह विशाल वृक्ष बन जाता है, और उस पर पुनः अन्य फल, फूल, पत्ते आदि लगते हैं, उस फल में से अन्य अनेक बीज प्राप्त होते हैं और उनमें से पुनः अन्य सैंकड़ों वृक्ष उत्पन्न हो सकते हैं । इस प्रकार अनंत जीव स्वयं अपने शरीरादि के कर्ता हैं, स्वयं अपनी रचना करते हैं । माता - पिता के संसर्ग से एक जीवात्मा माता के गर्भ में उत्पन्न होता है, आहार के योग्य पुद्गल ग्रहण करता है और उस रज- ज-वीर्य के संयोग से पिंड को जीवात्मा ग्रहण करके शरीर के रूप में परिणत करता है और साढे नौ माह के काल में अपना विकास कर के अपनी देह रचना करता है । माता के पोषक आहार में से अपने संपूर्ण अंगोपांग विकसित करके समय परिपक्व होने पर वह इस धरा पर अवतरित होता है और विकास करते करते विशाल मानव बनता है । यहाँ गर्भ काल से ही ईश्वर बीच में कहाँ आ जाता है ? ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? जीव स्वदेह का कर्ता स्वयं ही है । वर्तमान विश्व में मानव जन संख्या कुल छह अरब हैं। सभी लोगों के चहेरे समान नहीं होते, एक की मुखाकृति दूसरे की मुखाकृति से भिन्न होती है । इसी एक वालिश्त के चहेरे में दो ही आंखे, दो ही कान, नाक, ओष्ठ, दाँत, मुँह जो है वही सभी हैं, इस में कोई अन्तर नहीं है, परन्तु एक की मुखाकृति दूसरे की मुखाकृति से नहीं मिलती है । अब आप ही बताईये कि ईश्वर इतने अधिक भिन्न भिन्न चहेरे बनाने कब बैठे होंगे ? कितने साँचे बना बना कर भाँति भाँति की आकृतियाँ बना पाए होंगे ? संभव ही नहीं है, फिर ईश्वर को बीच में क्यों घसीटा जाए ? स्वयं जीव स्वतः ही स्व कर्मानुसार सब रचना करता है । इसके जन्मजन्मान्तर के जैसे जैसे शुभ अशुभ कर्म रहे हैं । उन्हीं के आधार पर वह स्वयं रचना करता है । जीव कर्मानुसार रचना करता है, अतः विचित्रता दिखती है । यदि एक ही ईश्वर स्वच्छा से सब करता हो तो इतनी विचित्रता विषमता अथवा 1 257
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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