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वह ईश्वर कहलाएगा और उसकी महत्ता बढ़ेगी - यदि नहीं बनाता है तो उसमें ईश्वरत्वनहीं आ पाएगा क्यो ? कैसी बुद्धिविहीन बात है । ईश्वरत्व और पृथ्वी - पर्वतादि में परस्पर कोई संबंध नहीं है। किसी प्रकार से कोई भी एक-दूसरे का मान बढ़ाने वाला नहीं है । कोई एक-दूसरे का जनक-जनेता-जन्य, कार्य-कारण भाव भी नहीं है । जैसे पुत्र ने जन्म लेकर पिता को पितृपन की उपाधि से विभूषित किया, एक स्त्री को माता का पद दिया और इसमें जैसे माता पुत्र के द्वारा पूजी जाती है, और गौरव प्राप्त करती है - यह कहाँ तक उचित कहलाता है ? ठीक है, यहाँ पिता-पुत्र में तो फिर भी संभव है, क्यों कि जन्य-जनक का संबंद है, पर पृथ्वी-पर्वातादि का निर्माता ही ईश्वर क्यो कहलाता है ? यह सब रचना करे तो ही वह ईश्वर कहलाए ऐसा क्यों ? ऐसा इन दोनों में परस्पर क्या संबंध है । ईश्वर कामूल्यांकन पृथ्वी-पर्वतादि के आधार पर क्यों किया जाता है ? अथवा तो पृथ्वी - पर्वत या वृक्ष -फल-पत्ते आदि के जितना ही मूल्य-महत्व ईश्वर का है ? ऐसा क्यो ? यह तो ईश्वर की क्रूर मज़ाक है । यह बात न्याय नहीं बल्कि अन्याय पूर्ण तर्क बुद्धि रहित लगती है। .
ईश्वर की ईस्वरता का आधार तो ईश्वरीयगुण हैं । वे हैं - वीतरागता, सर्वज्ञता, सर्वदार्शिता, अरिहंतता, तीर्थकरता । इन गुणों - लक्षणों के आधार पर ईश्वर का ईश्वरत्व सिद्ध करें तो इसमें ईश्वर का गौरव भी आरक्षित रहेगा और महत्ता भी वढ़ेगी । इसमें क्रूर मज़ाक नहीं होगी । ऐसे गुणों से मुक्त को भगवान, ईश्वर-परमेश्वर, परमेष्ठि मानने में आत्म संतोष और आनंदानुभूति भी होती है - यही मार्ग प्रशस्य मार्ग है ।
तब सृष्टि कौन बनाए ?
यहाँ प्रश्न यह होता है कि यदि हम ईश्वर को पृथ्वी पर्वत-वृक्ष-पानादि का कर्ता न भी मानें और उपरोक्त ईश्वरीय गुणों लक्षणों से संयुक्त को ही ईश्वर मानले तो पृथ्वी - पर्वातादि सृष्टि कौन बनाए ? इतने विशाल जगत की रचना कौन करता है ? यह संसार किसके द्वारा बनाया हुआ मानें ? ..
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