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न्याय वैशेषिक जैसे तार्किक बुद्धिशालियों को ईश्वर की सिद्धि करने के लिये, अथवा ईश्वर की पहिचान करने के लिये सृष्टि रचना करने का कारण मिला ? क्या ईश्वर की सिद्दि के लिये इसके सिवाय अन्य कोई हेतु न मिले ? जैनों ने तो स्पष्ट अकाटय हेतु, दिये ही हैं कि जो वीतराग है, सर्वज्ञ केवलज्ञानी हो, तीर्थकर हो, राग-द्वेष के विजेता हों, अरिहंत हों मोक्षमार्ग के उपदेशक हों, घातिकर्म रहित हों, वे ही भगवान ईश्वर कहलाते हैं । ईश्वर ही नहीं बल्कि परमेश्वर परम + ईश्वर कहलाते हैं । जैनों ने तो ईश्वर की सिद्धि या पहिचान करने के लिये सृष्टि रचना आदि जैसी बातें नहीं की हैं । सृष्टि का जो कर्ता हो वही ईश्वर कहलाए ऐसा कहने वाले न्याय-वैशेषिक दर्शनिकों का यह हेतु कितना सुसंगत और उचित कहा जा सकता हैं ? पृथ्वी- पर्वत - वृक्ष पत्ते आदि के साथ ईश्वर का क्या संबंध है ? ये पदार्थ तो जडपार्थिवादि पदार्थ हैं इनके कारण ईश्वर की सिद्धि ? इन दोनों में क्या संबंद है ? क्या मानव की सिद्धि आकाश के आधार पर हो ? अथवा क्या मिट्टी के घड़े के आधार पर मानव की सिद्धि की जाए ? परन्तु मिट्टी और मानव का क्या लेना-देना ? और यदि मिट्टी के घड़े के आधार पर मानव की सिद्धि करना मूर्खता कहलाती हो तो क्या पृथ्वी - वर्वत - वृक्ष-पान - फूल आदि के आधार पर ईश्वर की सिद्धि करना बुद्धिमत्ता का कार्य कहलाएगा ? नहीं
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यह तो बड़ी मूर्खता कहलाएगी । कहाँ ईश्वर और कहाँ पृथ्वी परवतादि इनका परस्पर क्या सम्बंध है ? इस प्रकार पृथ्वी - पर्वतादि के आधार पर ईश्वर की सिद्धि करना अर्थात् ईश्वर की खिल्ली उड़ाना है । इस प्रकार सिद्धि होगी या ईश्वर का अवमूल्यन होगा ?
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अतः सोच-समझकर बोलो । ईश्वर जगत का कर्ता है, ऊपर वाला ईश्वर ही इस सृष्टि का रचयिता है, इसी ने दुनिया बनाई है, यही निर्माता है, इसके बिना संसार कौन बना सकता है ? ऐसी सभी बातें समझे सोचे बिना की गई अज्ञानतापूर्ण बातें हैं । ऐसी बातें करने से हमारी मूर्खता का प्रदर्शन होता है । अतः सोच-समझ पूर्वक बोलने में ही बुद्धिमत्ता है । बुद्धिपूर्वक ही बोलने में समझदारी है - औचित्य है ।
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कुम्हार की भाँति इस संसार के पृथ्वी - पानी - वृक्षपदि पदार्थ बनाए अथवा न बनाए - इससे ईश्वरता में कहां कमी आने वाली है ? और यदि वह बनाता है भी
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