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योनि तो कितनी भयंकर है ? शरीर डरावना होता है। नाम सुनते ही स्त्रियाँ और बच्चे सिहर उठते हैं और यदि ईश्वर का शरीरभी ऐसा भूत-प्रेत-व्यंतरादि जैसा माना जाए तब तो लोग, उसका स्मरण-भजन करना तो दूर रहा, उससे भयभीत होंगे । भगवान के दर्शनादि तो अभयदाता होते है, न कि भयदाता तब ईश्वर की कैसा शरीर मानें ?
तो क्या ईश्वर का शरीर स्वर्ग या वैकुंठवासी इन्द्रादि देवताओं के शरीर जैसा माने ? इनद्रादि देवता तो स्वर्ग में ही बसते हैं, वहीं जन्म लेते हैं और वही मरते हैं । अप्सराओं आदि से परिवृत होकर सुख-भोग भोगने में आसत्क बन जाते है । तो क्या ईश्वर को भी ऐसा ही माने ? यदि आपका उत्तर सकारात्मक है तो वहां कितने वर्षों का ईश्वर का आयुष्य मानें ? क्यों कि शरीर आया अतः इन्द्रियां, आयुष्य, प्राण, क्षेत्र, योनि उत्पति आदि सभी वस्तुएँ माननी ही पडेंगी . फिर ईश्वर ने स्वर्ग में बैठकर ही पृथ्वी-पर्वतादि सब सृष्टि बनाई या क्या ? परन्तु ईश्वर का आयुष्यकाल आदि वेद-वेदांत स्मृति पुराण आदि किसी में नहीं लिखा गया है।
तब तो फिर अंत में मात्र मानव शरीर ही शेष रहता हैं । तो क्या ईश्वर को भी हमारी ही तरह हाथ-पाँव युक्त मनुष्य शरीर धारी पुरुष मानें ? यदि मानते हैं तो पुनः उन्हीं प्रश्नों की श्रृंखला शुरु हो जाती है कि ये ईश्वर किन से जन्में ? इनके माता-पिता कौन थे ? इस प्रकार अनेक पीढ़ियों स्वीकार करनी पड़ेगी । तब फिर सृष्टि निर्माण से पूर्व स्वर्ग-वैकुंठ इन्द्रादि देव-देवियाँ और इस पृथ्वी आदि का, अस्तित्व ही कहाँ से आया ? यदि यह स्वीकार करते हो तब फिर ईश्वर के जन्म लेने का प्रयोजन ही क्या रहा ? क्योंकि इस प्रकार तो ईश्वर के जन्म लेने से पूर्व ही सृष्टि का अस्तित्व सिद्ध हो जाता हैं, फिर प्रश्न ही कहाँ रहा ? और यदि अपने जैसा पौद्गलिक शरीर माने तो भी माप-वजन-आकार आकृति रूप सदर्य आदि अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं ।
इतना ही नहीं बल्कि यदि अपने जैसा ही ईश्वर का शरीर मानते है तब तो अदृश्यता कैसे रहेगी ? यदि अदृश्यशरीर न मानकर दृश्य शरीर मानते हैं । तो किसके जैसा दृश्य ? किसने देखा है ? यदि आज तक ईश्वर का सशरीरी स्वरुप
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