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सृष्टि निर्माण करने का इतना बड़ा कार्य ईश्वर करता है तो क्या वह सशरीरी बन कर करता है या असरीरी बन कर ? कार्य करने के लिये तो शरीरधारी बननना आवश्यक है इच्छा को भी फलवती करना हो तो भी शरीर धारी बनकर ही कार्य करने से इच्छा के अनुरुप कार्य होता है । कुम्हार घड़ा बनाना चाहे, पर उसका स्वंय का शरीर ही न हो तो वह कार्य कैसे कर सकता है ? वह ऐसी स्थिति में घड़ा बनाने में निष्फल ही रहेगा । अतः ईश्वर को भी यदि सशरीरी मानना चाहिये तो पुन : सैंकड़ो प्रश्न उत्पन्न होते हैं कि यह शरीर कैसा था ? किसके जैसा था ? हमारे शरीर जैसा मानव देह था या दैविक शरीर था ? क्या दृष्ट शरीर था या अदृष्ट शरीर था ?
- यदि आप कहते हैं कि अदृष्ट शरीर था तो अदृष्ट शरीर का भी पहीले अस्तित्व तो स्वीकार कर ही लेते हो न ? अब दूसरा प्रश्न यह है कि यदि अदृष्ट शरीर या तो किसके जैसा था ? वायु का शरीर भी अदृष्ट है । तो क्या वायु जैसे अदृष्टरूप वाले ईश्वर थे ? यदि कहते हो कि वायु जैसे अदृष्ट शरीर वाले थे तो हमारा अगला प्रश्न है कि उस वायुवत् अदृष्ट शरीर का काय प्रमाण, माप, वजन, अवगाहना आदि कितनी थी ? वेद-वेदान्त में कहीं लिखा भी है या नहीं? वेद में नहीं लिखा अतः नहीं मानना - क्या यह तर्क हैं ? तो फिर शरीर किस प्रकार मानते हो ? और यदि शरीर हो तो शरीर तो पौदगलिक है, पंचमहाभूतजन्य है । वायु के शरीर की भाँति इसका कोई माप-वजनादि नहीं है तो ईश्वर का शरीर कैसा माने ?
दूसरे अदृष्ट शरीर भूत-प्रेत-व्यंतरो के होते हैं । क्या ईश्वर का शरीर भूतप्रेतादिजैसा मानें ? ऐसा ही अद्दश्य ? तब भी पुनः प्रश्न उपस्थित होंगे कि ईश्वर • इतने समर्थ और शक्तिमान हैं तो आश्चर्य हैं कि उन्हें भूत-प्रेतादि व्यंतर जैसा
शरीर बनाना पड़े ? जो ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि को सुंदर बना सकता है, उसे अपना शरीर बनाने में क्यों कष्ट हो जाता है । इसने पुष्प - पतंगे आदि का कितना सुंदर शरीर बनाया है । जो ईश्वर दूसरो का शरीर इतना सुंदर बना सकता हो वह अपना कितनो सुंदर बना सकता होगा - इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती फिर भी यह सब कुछ छोड़कर ईश्वर को भूत-प्रेत व्यंतर त्रिकाय का शरीर बनाना पड़ा है तो क्या ईश्वर को भूत-प्रेतादि की योनि में उत्पन्न हुआ माने ? अरे, यह
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