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गई ? क्या यह संभव है ? अब तो बुद्धि के द्वार बंद करके अंधश्रद्धापूर्वक हाँ में हाँ मिलाकर क्या इसे स्वीकार ही करे लें ?
कोई भी व्यक्ति इच्छा करे और फिर कार्य करे इन दोनों में कालांतर तो होता ही है - समय लगता ही है, काल की अपेक्षा के बिना कालके अभाव में कोई भी कार्य होता ही नहीं, तब ईश्वर के लिये यह शाश्वत नियम लागू क्यों नहीं पड़ता? ईश्वर के लिये यह नियम ताक पर क्यों चढ़ाया गया ? इस प्रकार इच्छा
और कार्य एक समयावच्छेद करके मानने में अन्य प्रमाण कौनसे हैं ? आधारभूत कोई भी प्रमाण अभी तक नहीं मिला । ।
ईश्वर की साद्दश्यता :
जो इच्छा ईश्वर करता है वही इच्छा जीव करता है तो कार्य सिद्धि क्यों नहीं होती ? यदि सामान्य जीवों में भी इच्छानुसार कार्य सिद्धि और इच्छा के साथ ही कार्य - निष्पत्ति पाई जाती, इसे बार बार देखकर भूयोदर्शन करके प्रत्यक्ष किया होता तो ईश्वर में अनुमान भी कर सकते थे । जैसे रसोईघर में धूम्र और अग्नि में जन्म - जनक भाव और सहअस्तित्व-भूयोदर्शनरूपमें सैंकड़ो बार देखने में आता है, बाद में ही पर्वतादि पर धुंआ देखकर अग्नि का अनुमान किया जा सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि अनुमान के लियें भूयोदर्शन के प्रत्यक्ष अनिवार्यता टाली नहीं जा सकती।
.. इसी प्रकार ईश्वर में इच्छा मात्र में कार्य सिद्धि का अनुमान करने से पूर्व सामान्य जीवों में उसका भूयोदर्शन करना अनिवार्य है । यदि सामान्य जीवों में इच्छा करने.मात्र से और इच्छा करने जितने समय मात्र में ही कार्य की निष्पत्ति द्दष्टिगोचर हो, तो इस अनुमान के आधार पर हम ईश्वर में भी इच्छा मात्र से कार्य की सिद्धि मान सकते थे, परन्तु ऐसा भूयोदर्शन ईश्वरेतर किसी भी जीव में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता, सर्वत्र अभाव ही दिखाई देता है । इसलिये, लिंग - लिंगी ज्ञान भली प्रकार न हो, तो अनुमान कैसे हो ? अतः ईश्वर में इच्छा मात्र से अथवा इच्छा करने मात्र के समय में ही कार्य सिद्धि हो जाती है - यह बात निराधार सिद्ध होती है । यदि इच्छा में ऐसी शक्ति हो कि जिससे कार्य सिद्धि होती हो तब तो
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