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बात एक बार स्वीकार कर ली गई है अतः अब इसे कैसे छोड़े ? भले ही गधे की पूँछ हाथ में आ जाने के बाद लात खाने पर भी नहीं छोडना मतलब नहीं है छोडना - ऐसी ही स्थिति हुई न ? पाप अथवा अशुभ कार्य करवाने की इच्छा भी ईश्वर में मानने के लिये ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वाले ईश्वरवादी तैयार हैं परन्तु ईश्वर में से इच्छा तत्त्व निकालने हेतु तैयार नहीं हैं । कौन जाने क्यों इच्छा को रखने से ही ईश्वर का गौरव बढ़ता हैं ?
इच्छा पक्ष या शक्ति सामर्थ्य पक्ष ? ...
इच्छा तत्त्व मानने के पीछे कितने प्रश्न खड़े हो जाते हैं ? सैंकड़ो प्रश्न हैं जिनका कोई उत्तर न होने पर भी इच्छा तत्त्व मानना ही है, चलो ठीक हैं - भले ही इच्छा तत्त्व को ईश्वर में मानो परन्तु इतना तो कहो कि ईश्वर संपूर्ण विश्व की उत्पत्ति इच्छा मात्र से करता है । क्या इच्छा करने मात्र से कार्य हो जाता है ? क्या इच्छा कार्य करवाने वाली शक्ति है या कार्य का विचार करवाना ही इसका काम है। यदि इच्छासे ही कार्य हो जाते हो, तब तो फिर सामान्य मनुष्य के भी इच्छानुसार कार्य हो जाने चाहिये । इच्छा महत्त्व की है । व्यक्ति भले ही सामान्य हो या ईश्वर हो, इच्छा में कहाँ अन्तर आता है । आपको तो इच्छा से ही प्रयोजन है न ? बस, तो फिर जैसी इच्छा इश्वर करता है वैसे ही इच्छा अन्य सामान्य जीव करें तो कार्य होने चाहिये या नहीं ? इच्छा के स्वरुप में एक अक्षर का भी अन्तर न पड़ता हो तब तो काम होना चाहिये कि नहीं ? अथवा तो कह दो कि इच्छा करने मात्र से काम नहीं होता है । इच्छानुसार शक्ति का भी उपयोग करना पड़ता है । तो प्रश्न होता है कि ईश्वर ने इच्छा करने के बाद कौन सी शक्ति का उपयोग किया ? कितनी शक्ति काम में ली ? तब फिर ऐसा क्यों कहते हो कि संकल्प - - इच्छा मात्र से सष्टि उत्पन्न होती है । तब यह भी कैसे मान लें कि ईश्वर ने इच्छा की और तदनुसार उसने स्वयं ही सृष्टि का निर्माण किया ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ईश्वर भी स्वार्थी बनकर पक्षपात करता हो ? क्या समझा जाए ? ईश्वर अच्छा सुंदर कार्य तो वह स्वयं करता है, सृष्टि आदि निर्माण करने का कार्य - जिसमें यश की प्राप्ति होती है वह ईश्वर स्वयं करता है और जिस कार्य में अपयश प्राप्त होता है ऐसे कार्य अर्थात् बुरे पाप कार्य जीवों के पास करवाता है । ऐसी स्वार्थवृत्ति से तो ईश्वर का ईश्वरत्व कैसे टिक पाएगा ?
दूसरी ओर मानो कि आपका उपरोक्त उभय पक्ष मान भी लें तो ईश्वर में
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