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सामान्य जीवों की इच्छा अकर्मी इच्छा है अर्थात् ईश्वर इच्छा करे तो कार्य होता है, और सामान्य जीव इच्छा करे तो तदनुकूल कार्य न भी हो । इस प्रकार भेद कर दिया।
जीव तो इसे भी स्वीकार करने के लिये तैयार हैं, क्योंकि बुरे अशुभ पापों की इच्छा का उत्तरदायित्व भी ईश्वर ने ही स्वीकार कर रखा है अर्थात् अशुभ बुरे मिथ्या पाप करवाने वाला, ईच्छा करने वाला भी ईश्वर ही है । जीव तो निर्दोष हैं। अच्छा हआ जीव तो निर्दोष छटे और ईश्वर के सिर दोष का बौज चढ़ा । अतः सामान्य जीवों के लिये तो प्रसन्न होने की बात हैं । जीव तो प्रसन्न होकर कह सकेंगे कि हमारे सिर कुछ नहीं । किसी खूनी को पूछोगे कि भाई ! तूने खून क्यों किया ? तो सीधा उत्तर देगा नहीं, नहीं, मैंने कुछ नहीं किया ? जो कुछ भी हुआ ईश्वरेच्छा से हुआ । ईश्वर ने मेरे पास यह कृत्य तो करवाया है । मैं क्या करूँ ? यदि मैं ईश्वर की इच्छानुसार अनुसरण नहीं करता हूं तो ईश्वर की इच्छा का क्या होगा ? फिर उसकी इच्छा का पालन कौन करेगा ? अर्थात् सामान्य जीवों को ईश्वर पर दया आती है । ईश्वर की इच्छा भले ही अशुभ-पाप की क्यों न हो - तब भी जीव तो वह पाप करने की तत्परता दिखाते हैं । . यह तो उल्टी गंगा बहने लगी। ईश्वर जीवों पर दया करे इसके बजाय जीव ही ईश्वर पर दया सोचने लगे कि यदि हम ही अशुभ-पाप न करेंगे तो ईश्वरेच्छा का क्या होगा ? ईश्वर की इच्छा निरर्थक सिद्ध नहो अतः हमारे लिये पाप करना आवश्यक हो गया ।
ईश्वर इच्छा ही कर सकता है, परंतु उस इच्छानुसार कार्य नहीं, अतः सामान्य जीवों के पास वह अपनी इच्छानुसार सब कुछ करवाता है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
स्पष्ट दीपक जैसी बात है कि इस संसार में लाखों-करोड़ो वर्षो पहले और आज भी अशुभ पाप-कर्म ८० से ९० प्रतिशत अधिक होते आए हैं, तो क्या ये सभी काम ईश्वरेच्छा के बिना होते हैं ? फिर तो ईश्वर की इच्छानुसार क्या क्या होता है और कितना होता है ? क्या पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, नदी आदि इतने ही कार्य ईश्वर की इच्छानुसार बनाये हुए माने । नहीं, नहीं, तब तो पुनः ईश्वर के हाथ में से लगाम छुट जाएगी - यह भी स्वीकार्य नहीं है । अतः पुनः सब कुछ ईश्वर की इच्छानुसार ही होता है इसी पक्ष को सच्चा मानते हैं । इच्छा तत्त्व रहने से ही ईश्वर का गौरव रहता है, महत्त्व है । ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता - यह
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