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________________ दिया । यहाँ क्या समझें । इसे श्रीराम-ईश्वर की इच्छा समझे या धोबी की इच्छा समझे ? इस प्रकार इच्छा का तांडव कितना भयंकर हो गया है कि ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वाले एक मिनिट भी ईश्वर को इच्छारहित मानने के लिये तैयार ही नहीं । बस, इच्छा क्या गई, मानो प्राण चले गए। जैसे प्राण के बिना कोई जी नहीं सकता, उसी प्रकार इच्छाविहीन ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं रह सकता । अतः ईश्वर का अस्तित्व टिकाए रखने के लिये चाहे जैसी भी इच्छा को हँस देनी पड़ती है । अतः इच्छा को मान लिया । नहीं, नहीं, धोबी की इच्छा नहीं । तो क्या धोबी के पास ईश्वर ने ही ऐसी इच्छा करवाई होगी ऐसा स्वीकार करोगे ? अन्तिम उत्तर है ईश्वर की लीला | तब तो इस जगत में पाप करने वाले, कुकर्म करने वाले सभी जीव यही कहेंगे कि हम तो कुछ भी करते ही नहीं है । यह सब ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही होता है, ईश्वर हमारे पास करवाता है, प्रारंभ में ईश्वर की ऐसी इच्छा होती है, और फिर वह उसकी इच्छानुसार हमसे पापकर्म-कुकर्म करवाता है । यदि जगत के जीव ऐसा उत्तर देंगे तो ईश्वरवादी क्या कहेंगे । यदि वे इसे नकारेंगे और कहेंगे कि ऐसा पापमयकार्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं होते, पाप करने में ईश्वर की कोई रुचि नहीं, पाप तो जीव स्वंय ही स्वेच्छा से करते हैं, मात्र शुभ कार्य - पुण्य कर्म करवाने में ही ईश्वर का हाथ होता है उसकी इच्छा होती है तो सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर की इच्छा के बिना भी कार्य होते हैं । अच्छा, तो अब यह देखना है कि संसार में पाप कर्म अशुभ कार्य अधिक होते हैं अथवा पुण्यकर्म - शुभ कार्य अधिक होते हैं । क्या कहते हैं ? और यदि इच्छा मात्र से होते हैं - ऐसा स्वीकार करते हो तो कार्य होने की शक्ति इच्छा में हैं। कार्य का कारण इच्छा में है ऐसा मानना पड़े और यदि इच्छा के कारण कार्य की सिद्धि होती हो, तो यह कारण तो जनसामान्य में भी विद्यमान है, सामान्य जीवों में भी इच्छा तो है ही, तब फिर भू भूधरादि कार्य क्यों नहीं होते हैं ? - परन्तु यदि जगत्कर्तृत्ववादी यहां स्वीकार करें तो अन्य जीवों को भी ईश्वर कहना पड़े और तब तो ईश्वर की सत्ता और इच्छा करने का अधिकार छिन जाए। अतः इच्छा की सत्ता ईश्वर में ही माननी पड़े, परन्तु यह पक्ष भी कहाँ रहा ? ईश्वर में भी इच्छा है, सामान्य मनुष्यों में भी इच्छा है, तब फि में अन्तर कहाँ हुआ ? अतः सृष्टिवादियों ने भेद किया कि ईश्वर की इच्छा सकर्मी इच्छा है और 243
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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